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________________ चाणक्य की मृत्यु] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य महागिरि-सुहस्ती ४४६ मिल गई । बिन्दुसार के मनोगत भावों को दूरदर्शी कूटनीतिज्ञ चाणक्य ने तत्काल ताड़ लिया और वह संसार से विरक्त हो अशन-पानादि का परित्याग कर नगर के बाहर एकान्त स्थान में ध्यानस्थ हो गया । अपनी धाय मां से वास्तविकता का बोध होते ही बिन्दुसार को बड़ा पश्चात्ताप हुआ। उसने चाणक्य के समक्ष उपस्थित हो वार-बार क्षमायाचना करते हुए उन्हें यथावत् महामात्य पद का कार्यभार सम्हालने की प्रार्थना की, पर चाणक्य समग्र ऐहिक आकांक्षाओं का परित्याग कर आत्मचिन्तन में लीन हो चुके थे; अतः बिन्दुसार को हताश हो खाली हाथों लौटना पड़ा । जैन वाडमय में इस प्रकार का उल्लेख उपलब्ध होता है कि सुबन्धु सेवा करने के बहाने से चाणक्य के पास रहने लगा और रात्रि में उसने उस कण्डों के ढेर में आग लगा दी जिस पर कि चाणक्य ध्यानस्थ बैठे थे । चाणक्य ने आग से बचने का कोई प्रयास नहीं किया और समाधिस्थ अवस्था में ही स्वर्गारोहण किया। दिगम्बर परम्परा के “आराधना"', "हरिषेण कथाकोष"२ और "अाराधना कथाकोष'3 आदि ग्रन्थों में चाणक्य के दोक्षित होने, ५०० शिष्यों के साथ पादपोपगमन संथारा करने और सुबन्धु द्वारा उन्हें कण्डों की प्राग में जला डालने तथा समाधि मरण द्वारा चाणक्य के स्वर्गस्थ होने का उल्लेख उपलब्ध होता है। "पाराधना-कथाकोष" में चाणक्य के सिद्ध होने का उल्लेख किया गया है, वह नितान्त भ्रान्त धारणा का ही प्रतिफल प्रतीत होता है। सुबन्धु द्वारा किया गया यह घृरिणत एवं जघन्य अपराध जनसाधारण और विन्दुसार से छुपा न रह सका । राजा एवं प्रजा द्वारा क्रमशः अपदस्थ एवं अपमानित किये जाने के पश्चात् सुबन्धु विक्षिप्त हो गया। उसकी बड़ी दुर्दशा हुई और अनेक प्रकार के घोर कष्टों से पीड़ित हो वह अन्त में पंचत्व को प्राप्त हुआ। प्राचार्य हेमचन्द्र ने परिशिष्ट पर्व में उल्लेख किया है कि गृहत्याग से पहले कूटनीतिज्ञ चाणक्य ने सुबन्धु को उसकी कृतघ्नता का दण्ड देने के लिये एक बहुत बड़े सन्दूक को अनेक तालों से बन्द कर अपने कोशागार में रख दिया। कण्डों के ढेर में आग लगा कर चाणक्य को उसमें जलता छोड़ सुबन्धु चाणक्य के निवास स्थान पर पहुंचा और उस सन्दूक को देखते ही हर्षविभोर ' गोठे पयोगदो सुबधुणा गोबरे पलिविदम्मि । उज्झन्तो चाणक्को पड़िवण्णो उत्तमं ठाणं ॥१५५६।। [भाराधना] २ चाणक्याख्यो मुनिस्तत्र, शिष्यपंचशतैः सह । पादोपगमनं कृत्वा, शुक्लध्यानमुपेयिवान् ।। उपसर्ग सहित्वेमं सुबन्धुविहितं तदा। समाधिमरणं प्राप्य, चाणक्यः सिद्धिमीयिवान् ।। [हरिषेण कथाकोष] 3 पाराधना कथाकोष, श्लोक ४१-४२, पृ० ३१० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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