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________________ ४५० जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ चाणक्य की मृत्यु हो गया उसने यह सोच कर उसे खोला कि उसमें अपार सम्पत्ति भरी पड़ी होगी । पर सन्दूक के खुलते ही उसमें से एक तीव्र गन्ध निकली और उसके प्रभाव से सुबन्धु तत्काल नितान्त अस्थिर प्रकृति का एवं अर्द्धविक्षिप्त बन गया । 'शठे शाठ्यं समाचरेत्' इस उक्ति का अनुसरण करते हुए चारणक्य ने उस सन्दूक में इस प्रकार की प्रौषधियां रख दी थीं, जिनकी तीव्र गन्ध से मस्तिष्क की शिराएं सदा के लिए सिकुड़ जायं । चारणक्य भली-भांति जानता था कि उसकी मृत्यु के पश्चात् सुबन्धु उसकी सम्पत्ति पर येन-केन-प्रकारेण अवश्य अधिकार करेगा । चाणक्य द्वारा चलाया गया युक्ति का तीर ठीक लक्ष्य पर लगा और सुबन्धु अनेक प्रकार के कष्टों से पीडित हो बड़ी दुर्दशापूर्ण स्थिति में काल का कवल बना । प्रायं सुहस्ती के प्राचार्यकाल का राजवंश वीर नि० सं० २४५ में आर्य महागिरि के स्वर्गगमन के पश्चात् जिस समय श्रार्यं सुहस्ती प्राचार्य बने उस समय मौर्य सम्राट् बिन्दुसार के शासनकाल का अनुमानतः बारहवां वर्ष चल रहा था । प्रार्य सुहस्ती के आचार्यकाल में लगभग १३ वर्ष तक बिन्दुसार का सत्ताकाल रहा । २५ वर्ष तक शासन करने के पश्चात् वीर नि० सं० २५८ में बिन्दुसार परलोकवासी हुआ । मौर्यसम्राट अशोक प्रार्य सुहस्ती के प्राचार्यत्वकाल में बिन्दुसार की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र अशोक ( वीर नि० सं० २५८ में ) ' मगध के विशाल साम्राज्य का अधिपति बना । उपलब्ध प्रमारों के आधार पर अनेक इतिहासविदों की मान्यता है कि शोक का पिता बिन्दुसार तथा पितामह चन्द्रगुप्त दोनों ही जैनधर्मावलम्बी थे, अतः अशोक भी प्रारम्भ में जैनधर्मावलम्बी ही था । अपने राज्य के ८वें वर्ष ( वीर नि० सं० २६६ ) में प्रशोक ने कलिंग पर आक्रमण किया । कलिंगपति क्षेमराज अपनी सशक्त विशाल सेना ले कर रणांगरण में आ डटा । दोनों ओर से बड़ा भीषण युद्ध हुआ । क्षेमराज के वीर सैनिकों ने कलिंग की रक्षा के लिये बड़ी वीरता पूर्वक युद्ध किया किन्तु मगध साम्राज्य की प्रतिप्रबल अगणित सेना सम्मुख भीषण रक्तपात के पश्चात् अन्ततोगत्वा उन्हें पराजय का मुख देखना पड़ा । कलिंग के उस युद्ध में डेढ़ लाख सैनिक बन्दी बनाये गये, एक लाख योद्धा मारे गये तथा इससे कहीं अधिक योद्धा युद्ध में लगे घावों के फलस्वरूप युद्धसमाप्ति के पश्चात् मर गये । इस भीषण नरमेध से के अशोक के हृदय पर बड़ा " गुर्जरा, रूपनाथ, सहसराम ब्रह्मगिरि, सिंहपुर, गोविमठ और २५६ का अंक उल्लिखित है । इसे इतिहासज्ञ वीर नि० सं० २ मौर्य साम्राज्य का इतिहास की के० पी० जायसवाल द्वारा लिखित भूमिका । Jain Education International अहरोरा के शिलालेखों पर २५६ मानने लगे हैं । For Private & Personal Use Only [सम्पादक ] www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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