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________________ मौर्य सम्राट् अशोक ] दशपूर्वर-काल : प्रायं महागिरि - सुहस्ती ४५१ गहरा आघात पहुंचा । उसने अपने १३ वें शिलालेख में इसके लिये स्वयं को दोषी बताते हुए गहरा दुःख प्रकट किया है । प्रशोक ने धर्म विजय को अपने साम्राज्य की नीति बताते हुए घोषणा करवा दी कि अब भविष्य में वह कभी इस प्रकार के नरसंहार एवं रक्तगत द्वारा किसी भी देश पर विजय अभियान नहीं करेगा । जिस समय अशोक अनुताप की अग्नि में जल रहा था उस समय संभवतः वह बौद्ध भिक्षुसंघ के प्राचार्य के सम्पर्क में आया और उनसे प्रभावित हो कर बौद्धधर्मावलम्बी बन गया। बौद्ध धर्म स्वीकार करने के पश्चात् अशोक ने अपना शेष जीवन बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार और अभ्युत्थान में लगा दिया । उसने भारत के पड़ोसी देशों में धर्मप्रचारकों को भेज कर बौद्ध धर्म का प्रचार किया; 'यही नहीं अपितु अशोक ने अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को बौद्ध धर्म के प्रचार के लिये बौद्ध श्रमण श्रीर श्रमरणी के रूप में दीक्षित करवा कर लंका में भेजा । अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के साथ-साथ प्रजा के हित के लिये भी अनेक लोककल्याणकारी कार्य किये और अनेक शिलालेख उत्कीर्ण करवाये, जिनमें जनहित की दृष्टि से अनेक प्रकार की धार्मिक एवं सांस्कृतिक प्रज्ञाएं प्रसारित की गई थीं ।' गहन शोध से पहले अधिकांश इतिहासज्ञों की यह धारणा थी कि मौर्यकालीन जितने भी शिलालेख उपलब्ध होते हैं, वे प्रायः सब के सब मौर्य सम्राट् अशोक द्वारा उत्कीर्ण करवाये हुए और बौद्ध धर्म से ही सम्बन्धित हैं किन्तु अब ज्यों-ज्यों विद्वान् शोधार्थियों द्वारा इस विषय में और अधिक गम्भीर शोध की जा रही है त्यों-त्यों यह तथ्य प्रकाश में श्राता जा रहा है कि वस्तुतः मौर्यकालीन शिलालेखों में चन्द्रगुप्त से ले कर सम्प्रति तक के सभी मौर्य सम्राटों के शिलालेख सम्मिलित हैं और जिन शिलालेखों को आज तक अशोक के शिलालेखों के नाम से केवल बौद्ध धर्म से सम्बन्धित शिलालेख समझा जाता रहा था, उनमें से कतिपय शिलालेख सम्प्रति, बिन्दुसार और चन्द्रगुप्त के एवं जैन धर्म से सम्बन्धित भी हैं । सारनाथ के स्तम्भ के शीर्ष भाग में ४ सिंह और उन चारों सिंहों के ऊपर धर्मचक्र उत्खनित है । इसे भ० बुद्ध द्वारा सारनाथ में बौद्ध धर्म के प्रवर्तन का प्रतीक माना जाता रहा है । भ० बुद्ध को गिरनार के १३वें अभिलेख में उत्तम हस्ति के रूप में स्मरण किया गया है। सिंह के चिह्न का सम्बन्ध बुद्ध के साथ उतना संगत नहीं बैठता जितना कि भगवान् महावीर के साथ । भगवान् महावीर का चिह्न ( लांछन ) सिंह था और केवलज्ञान की उत्पत्ति के पश्चात् भगवान् महावीर के साथ-साथ सिंह का चिह्न भी चतुर्मुखी दृष्टिगोचर होने लगा था । सिंहचतुष्टय पर धर्मचक्र इस बात का प्रतीक है कि जिस समय तीर्थंकर विहार करते हैं, उस समय धर्मचक्र नभमण्डल में उनके आगे-आगे चलता है । इस ... अब इतिहास के अनेक विद्वान् यह मानने लगे हैं कि ये सभी शिलालेख केवल अशोक के ही नहीं अपितु चन्द्रगुप्त, बिन्दुसार, सम्प्रति आदि सभी मौर्य सम्राटों के हैं। इन पर गहन शोध की आवश्यकता है । [सम्पादक ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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