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श्रुतकेवली-काल : श्राचार्य प्रभवस्वामी
कुबेरदत्ता को अवधिज्ञान की उपलब्धि हो गई । जब कुबेरदत्ता को प्रवधिज्ञान से यह विदित हुआ कि उसका भाई कुबेरदत्त अपनी माता कुबेरसेना के साथ दाम्पत्य जीवन व्यतीत कर रहा है तो उसे सांसारिक प्राणियों की गर्हणीय एवं दयनीय स्थिति पर बड़ा प्राश्चर्य हुआ । उसने मन ही मन विचार किया -- "प्रज्ञान के कारण मानव कितना घोर अनर्थ कर डालता है । कुबेरसेना और कुबेरदत्त को प्रतिबोध देने हेतु उसने प्रवर्तिनी की आज्ञा से कुछ आर्यानों के साथ मथुरा की ओर विहार किया। वहां पहुंच कर कुबेरसेना गरिका के घर में ही एक निवासयोग्य स्थान मांग कर कुबेरदत्ता ने वहां रहना प्रारम्भ किया । कुबेरदत्त से कुबेरसेना को एक बालक की प्राप्ति हुई थी । उस बालक को कुबेरसेना बार-बार साध्वी कुबेरदत्ता के पास लाने लगी ।
कुबेरदत्त कु० का प्रा०.
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कुबेरसेना और कुवेरदत्त को प्रतिबोध देने के लिये कुबेरदत्ता ने उस बालक को दूर से ही दुलारभरे स्वर में हुलराना प्रारम्: किया - "अरे प्रो नन्हें मुन्ने ! रो मत, तू मेरा भाई है, देवर भी है, पुत्र भी है, मेरी सौत ( विपत्नी) का पुत्र भी है। एक तरह से तू मेरा भतीजा भी है । काका भी है। ओ मुन्ने ! जिसका तू पुत्र है वह मेरा भाई भी है, पति भी है, पिता भी, पितामह भी, श्वसुर भी और पुत्र भी है । ग्ररे बालक ! और भी सुन ! में एक और निगूढ़ तथ्य का उद्घाटन तेरे समक्ष करती हूं - प्रो बच्चे ! जिस स्त्री के गर्भ से तू उत्पन्न हुना है, वह मेरी माता है । वह मेरी सास भी, विपत्नो भी, भ्रातृजाया भी, पितामही भी और बहू भी है ।"
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साध्वी कुबेरद्वत्ता द्वारा अपने पुत्र का इस प्रकार का हुलराना सुन कर कुबेरदत्त चौंका । उसने वन्दन करने के पश्चात् साध्वी से प्रश्न किया " साध्वीजी ! प्राप इस प्रकार की परस्परविरोधी और असम्बद्ध बातें क्यों प्रौर किस कारण से कह रही हैं ? क्या प्रापकी बुद्धि में कोई भ्रान्ति हो गई है अथवा आप इस बालक के विनोद के लिये केवल क्रीडार्थ ऐसी प्रयोग्य बातें कह रही हैं ?"
साध्वी कुबेरदत्ता ने उत्तर में कहा- "श्रावक ! में जो बातें कह रही हूं वे सब सच्ची हैं। मैं तुम्हारी बहिन वही कुबेरदत्ता हूं जिसके साथ तुम्हारा पाणिग्रहण हो गया था और यह है हम दोनों की माता कुबेरसेना ।"
कुबेरसेना प्रौर कुबेरदत्त प्राश्चर्य से श्रवाक् हो साध्वी की ओर निहारते ही रह गये ।
तत्पश्चात् साध्वी कुबेरदत्ता ने अपने अवधिज्ञान द्वारा देखी हुई अनेक बातें उन दोनों को प्रमाणपुरस्सर सुनाई और नामांकित मुद्रिका की बात कही, जिन पर कुबेरदत्त और कुबेरदत्ता के नाम अंकित थे ।
साध्वी कुबेरदत्ता के मुख से समस्त यथातथ्य वृत्तान्त सुन कर कुबेरद को संसार से तीव्र वैराग्य हो गया । उसने अत्यन्त विषादभरे स्वर में अपने
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