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________________ ३०४ जंन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [कुबेरदत्त कु. का मा० आपको धिक्कारते हुए कहा – “शोक ! महाशोक ! अज्ञानवश मैंने कैसा प्रकरणीय, अनर्थभरा घोर कुकृत्य कर डाला। प्रात्मग्लानि और शोक से अभिभूत हो कुबेरदत्त ने उस बालक को अपनी समस्त सम्पत्ति का स्वामो बना कर साध्वी कुबेरदत्ता को श्रद्धा-भक्तिपूर्वक नमन करते हुए कहा - "आपने मुझे प्रतिबोध दिया है । यह आपका मुझ पर बहुत बड़ा उपकार है। अब में अपना शेष जीवन आत्मसाधना में ही व्यतीत करूंगा।" ___ यह कह कर कुबेरदत्त घर से निकल गया। उसने एक स्थविर श्रमण के पास जाकर भागवती दीक्षा ग्रहण की और निश्चल-निर्वेद के साथ विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करते हुए अन्त में वह समाधिमरण द्वारा आयु पूर्ण कर देवरूप से उत्पन्न हुआ। कुबेरसेना भी बोध पाकर श्राविका-धर्म का एवं गृहस्थ योग्य नियमों का पालन करती हुई अपने घर में रहने लगी और साध्वी कुबेरदत्ता अपनी प्रवर्तिनी की सेवा में लौट गई।" उपर्युक्त पाख्यान सुनाने के पश्चात् जम्बूकुमार ने प्रभव से प्रश्न किया"प्रभव ! अब तुम ही बताओ कि उन तीनों को उपरिवरिणत वस्तुस्थिति का सही-सही बोध हो जाने के पश्चात् भी क्या कभी विषय भोगों के प्रति राग अथवा आसक्ति हो सकती है ?" प्रभव ने कहा - "कभी नहीं ।” जम्बकूमार ने त्यागमार्ग को अपनाने का अपना दृढ़ निश्चय दोहराते हए कहा - "प्रभव ! कुबेरसेना आदि उन तीनों प्राणियों में से कदाचित् कोई मढ़तादश प्रमत्त हो विषयसेवन की अोर प्रवृत्ति कर सकता है किन्तु मैंने अपने गुरु के पास प्रमाण पुरस्सर विषयभोगों से होने वाले महान् अनर्थों को अच्छी तरह से समझ लिया है अतः मेरे मन में विषय-भोगों के लिये कभी लेशमात्र भी अभिलाषा उत्पन्न नहीं हो सकती।" प्रभव का मस्तक श्रद्धा से अवनत हो गया। उसने कहा - "श्रद्धेय ! तथ्यों से ओतप्रोत अतिशय सम्पन्न आपके वचनों को सुनकर ऐसा कौनसा चेतनाशील प्राणी है, जिसे प्रतिबोध नहीं होगा। किन्तु एक बात मैं आपसे कहना चाहता हूं। वस्तुतः धन बड़े ही कठोर परिश्रम और प्रयत्नों से प्राप्त होता है। प्रापके पास अपार सम्पत्ति है । इस विपुल वैभव का उपभोग करने के लिये पाप कम से कम एक वर्ष तक तो गृहवास में रहिये और षड्ऋतुओं के अनुकूल विषयभोगों का मानन्द लेते हुए दीन-दुःखियों की सेवा कर इस द्रव्य का सदुपयोग करिये। फिर मैं भी प्रापके साथ प्रजित होने को तैयार हूं।" ___ जम्बूकुमार ने कहा - "प्रभव ! पण्डित लोग सत्पात्रों को दान देने में सम्पत्ति का सदुपयोग प्रशंसनीय बताते हैं न कि विषय सुखों की कामनामों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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