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स्थूलभद्र द्वारा प्र. अभिग्रह) दशपूर्वधर-काल : प्रार्य स्थूलभद्र
३६६ चातुर्मास की समाप्ति पर सिंहगुहा, दृष्टिविष-विषधर-वल्मीक और कूप'माण्डंक पर चातुर्मास करने वाले तीनों मुनि निरतिचार रूपेण अपने-अपने अभिग्रहों का पालन करने के पश्चात् प्राचार्य सम्भूतविजय की सेवा में उपस्थित हुए। क्रमशः उन तीनों मुनियों के प्रागमन पर आचार्य सम्भूतविजय ने अपने ग्रागन से कुछ ऊपर उठ कर उन धार तपस्विया का स्वागत करते हुए कहा - "दुरकर साधना करने वाले तपस्वियो ! तुम्हारा स्वागत है।"
- कोशा वेश्या के घर से पाते हए दैदीप्यमान शुभ्र ललाट वाले अपने शिष्य स्थूलभद्र को देख कर प्राचार्य संभूतविजय सहसा अपने पासन से उठ खड़े हुए और उन्हाने मुनि स्थूलभद्र का स्वागत करते हुए कहा - "दुष्कर से भी अतिदुष्कर कार्य को करने वाले साधक शिरोमरगे ! तुम्हारा स्वागत है।"
- स्थूलभद्र ने प्राभार प्रदशित करते हए विनयावनत हो कहा - "गुरुदेव ! यह सब पापका ही नाप है । मेरी क्या शक्ति है ?'' मुनि स्थूलभद्र को गुरू द्वारा अपने से अधिक सम्मानित हा देख उन तीनों साधुओं के मन में ईर्ष्या अंकुरित हो उठी । वे तीनों मुनि प्रार्य स्थूलभद्र के प्रति अपने ईर्ष्या के भाव अभिव्यक्त करते हुए परस्पर बात करने लगे- "ग्रार्य स्थूलभद्र मन्त्रिपूत्र हैं, इस ही कारण गुरुदेव ने उनके साथ पक्षपात करते हुए उन्हें "दुष्करदुष्करकारिन्" के सम्बोधन से सर्वाधिक सम्मान दिया है । भव्य भवन में रह कर षड्रस भोजन करते हुए भी यदि "दुष्करदुष्करकारी" की उपाधि प्राप्त की जा सकती है तो आगामी चातुर्मास में हम लोग भी अवश्यमेव यह सुकर कार्य कर "दुष्करदुष्करकारी" की दुर्लभ उपाधि प्राप्त करेंगे।"
तदनंतर प्राचार्य सम्भूविजय ने अपने शिष्यसमूह सहित अन्यत्र विहार कर दिया। पाठ मास तक अनेक क्षेत्रों में विचरण करते हुए उन्होंने अनेक भव्य जीवों का कल्याण किया। इस प्रकार पुनः चातुर्मास का समय पा समुपस्थित हुआ।
स्थूलभद्र से होड़ ____सिंह की गुफा के द्वार पर विगत चातुर्मास व्यतीत करने वाले मुनि ने प्राचार्यप्रवर के सम्मुख उपस्थित हो सविधि वन्दन के पश्चात् उनकी सेवा में प्रार्थना की- “गुरुदेव ! मैं यह चातुर्मास कोशा वेश्या की चित्रशाला में रह कर षड्रस भोजन करते हुए व्यतीत करना चाहता हूं। कृपा कर मुझे इसके लिये आज्ञा प्रदान कीजिये।" ___आचार्य सम्भूतविजय से यह छुपा न रह सका कि वह मुनि आर्य स्थूलभद्र के प्रति मात्सर्यवश उस प्रकार का अभिग्रह धारण कर रहा है। अपने विशिष्ट ज्ञान से उपयोग लगाने के पश्चात प्राचार्यश्री ने कहा- "वत्स ! तुम इस प्रकार के अतिदुष्करदुष्कर अभिग्रह को धारण करने का विचार त्याग दो, इस प्रकार के अभिग्रह को धारण करने में सुमेरु के समान अचल और दृढ़ मनोबल वाला स्थूलभद्र मुनि ही समर्थ है।"
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