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________________ ४०० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [स्थूलभद्र द्वारा प्र० प्र० शिष्य ने हठपूर्वक उत्तर दिया - "गुरुदेव ! यह कार्य मेरे लिये दुष्करदुष्कर नहीं अपितु सहज सुकर है । मैं इस अभिग्रह को अवश्यमेव धारण करूगा।" घोर गर्त में जानबूझ कर गिरने के इच्छुक अपने शिष्य की दयनीय दशा पर दया से द्रवित हो आचार्य सम्भूतविजय ने उसे समझाते हुए शान्त और मधुर स्वर में कहा- "वत्स ! ऐसा दुस्साहस न करो। अपनी इस अविचारकारिता के कारण तुम अपने पूर्वोपार्जित तप-संयम को भी खो बैठोगे। अपनी शक्ति से अधिक भार को अपने सिर पर उठाने पर प्रत्येक व्यक्ति के अंगभंग का भय रहता है। कहा भी है : "देखा-देखी साधे जोग, छीजे काया बाढ़े रोग" ईर्ष्या से अभिभूत उस मुनि को अपने गुरु के हितकर वचन किंचित्मात्र भी रुचिकर नहीं लगे। वह गुरुप्राज्ञा की अवहेलना कर कोशा वेश्या के भवन की ओर प्रस्थित हुआ। अपने प्रांगण में उस मुनि को आया हया देख कर कोशा तत्काल समझ गई कि आर्य स्थूलभद्र के साथ प्रतिस्पर्धा की भावना से प्रेरित हो यह मुनि यहां चातुर्मास व्यतीत करने आया है। यह कहीं भवसागर के भंवर में फंस कर अनन्तकाल तक भववीचियों की भयावह थपेड़ों के असह्य कष्ट का भागी न हो जाय इस आशंका को ध्यान में रखते हुए उसकी रक्षा का उपाय करना आवश्यक है। यह विचार कर कोशा उस मुनि के समक्ष उपस्थित हुई और उसने मुनि को प्रणाम करते हुए पूछा- “महामुने ! अाज्ञा दीजिये, मैं आपके किस अभीष्ट का निष्पादन करू?" __ "भद्रे ! मैं आर्य स्थूलभद्र की तरह तुम्हारी चित्रशाला में चातुर्मास व्यतीत करना चाहता हूं, अतः तुम मुझे अपनी चित्रशाला रहने के लिये दो।" कोशा द्वारा मुनि को प्रतिबोध कोशा ने मुनि को चित्रशाला में रहने की अनुमति देकर षड्रस भोजन कराया। मध्याह्नवेला में मुनि की परीक्षा हेतु कोशा ने अति मनोरम एवं आकर्षक वेषभूषा से अपने आपको सुसज्जित कर चित्रशाला में प्रवेश किया। कोशा को एक भी कटाक्षनिक्षेप की आवश्यकता नहीं पड़ी क्योंकि आकर्षक वस्त्राभूषणों से अलंकृत उस रूपराशि को देखते ही मुनि कामविह्वल हो अभ्यस्त याचक की तरह उससे अभ्यर्थना करने लगे। षड्रस भोजन के पश्चात् सुन्दर नारी के दर्शनमात्र से कामान्ध हो उस मुनि ने भर्तृहरि की निम्नलिखित उक्ति को तत्काल चरितार्थ कर दिखाया :विश्वामित्र परासरः प्रभृतयो वाताम्बुपासना स्तेऽपि स्त्रीमुखपंकजं सुललितं दृष्ट्वंव मोहंगताः । शाल्यन्नं सघृतं पयोदधियुतं भुंजन्ति ये मानवा स्तेषामिद्रियनिग्रहो यदि भवेत् विन्धस्तरेच्छागरम् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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