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________________ १२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [स्वाभिमान करने के लिये सूर्य कभी प्रतीक्षा में नहीं रहता। अग्नि किसी के करस्पर्श, सिंह अपनी ग्रीवा के वालों के कर्षण को और क्षत्रिय अपने शत्रु को कभी चुपचाप सहन नहीं कर सकता। मैंने वड़े से बड़े दिग्गजवादियों को शास्त्रार्थ में हरा कर उनका मह सदा के लिये वन्द कर दिया है तो यह गेहेनर्दी गहशूर सर्वज्ञ मेरे समक्ष चीज ही क्या है ? जिस अग्नि ने गगनचुम्बी गिरीन्द्रों को भस्मसात् कर राख को ढेरी बना दिया हो उस अग्नि के समक्ष बेचारे वृक्षों और घास-फूस की क्या सामर्थ्य ? जिस प्रचण्ड पवन के झोंकों ने हाथियों के झुण्डों को आकाश में उड़ा दिया हो उसके समक्ष क्या कभी रूई की फुरहरी ठहर सकती हैं ? ___ मेरे भय से अंग देश के विद्वान् अपना पारम्परिक निवासस्थान छोड़ कर सुदूर देशों की ओर भाग गये, बंग देश के विद्वान् मेरे भय से त्रस्त और जर्जर हो गये, अवन्ती देश के विद्वान् मेरे भय से मानो मर ही गये और तिलंग देश के विद्वान् तो मेरे भय के ही कारण तिलंकरण के रंग की तरह काले हो गये हैं। अरे पो लाट देश के विद्वानो ! तुम सबके सब कहां चले गये हो? मनुष्यों में सर्वोत्कृष्ट चतुर द्रविड़ विद्वानो! तुम मारे लज्जा के किस गिरिगह्वर में जा छिपे हो ? खेद ! महाखेद ! शास्त्रार्थ के लिये परम आतुर, कण्डूयमान जिह्वा वाले इस इन्द्रभूति के लिये तो आज समस्त जगत् में वादियों का भयंकर दुष्काल और एकान्ततः प्रभाव हो गया है। ऐसे मुझ इन्द्रभूति के समक्ष सर्वज्ञता का दम्भ लिये हुए यह नया वादी कौन आया है ?" वस्तुतः मानव-स्वभाव में अहं इतना संपृक्त और घुला-मिला रहता है कि उसे मानव के सहजन्मा की संज्ञा दी जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। अधिकांशतः यह देखा जाता है कि मानव थोड़ा-सा ज्ञान अजित कर अपने उस पल्लवग्राही पाण्डित्य से ही अपने आपको सकल विद्यानिधान, अद्वितीय प्रकाण्ड पण्डित और यहां तक कि सब कुछ जानने देखने वाला सर्वज्ञ तक घोषित करने का दुराग्रह एवं दम्भ कर बैठता है । यह हमें प्रत्यक्ष में और पुरातन इतिहास के पन्नों में यत्र-तत्र देखने को मिलता है। ___मानव-मानस में उद्भूत इस अहं की विपवल्लरी के साथ-साथ जव दम्भ अथवा दुराग्रह का विपवृक्ष अंकुरित-पल्लवित तथा पुष्पित हो जाता है तो वह उस मानव के साथ-साथ कभी-कभी समग्र मानव जाति के अधःपतन का कारण भी बन जाता है। अपने समय में अपने समकक्ष अन्य किसी विद्वान को न पा कर मानव स्वभाव के कारण इन्द्रभूति के मन में भी कुछ क्षणों के लिये अहं के अंकुरित होने की संभावना महज प्रतीत होती है। पर पूर्वाग्रह, दुराग्रह अथवा दम्भ का उद्भव उनके मानस में किचित्मात्र भी नहीं हो पाया था। उनका अन्तर्मन तथ्य को ग्रहण करने के लिये मदा पूर्वाग्रह, दुगग्रह एवं दम्भ ग्रादि से उन्मुक्त और अछूता रहा। यही कारण है कि तथ्य की प्रवल जिज्ञाना और गत्य को ग्रहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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