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________________ १३ शास्त्रार्थ का विचार केवलिकाल : इन्द्रभूति गौतम कर उसे आत्मसात् करने की उनकी उदार मनोवृत्ति ने उनके एकांगीण व्यक्तित्व को प्रागे चल कर समष्टि के विराट् व्यक्तित्व का स्वरूप प्रदान किया। म. महावीर से शास्त्रार्थ का विचार अपने अहं के पूर्णरूपेण जागृत होने के फलस्वरूप इन्द्रभूति गौतम भगवान् महावीर से शास्त्रार्थ करने हेतु भगवान के समवसरण की ओर जाने के लिये उद्यत हुए। - इन्द्रभूति को भगवान् महावीर के पास जाने के लिये उद्यत देख कर उनके अनूज अग्निभूति ने उनसे कहा- "ज्येष्ठार्य ! जिस प्रकार कोमल कमलनाल को उखाड़ने के लिये इन्द्र के हस्तिशिरोमणि ऐरावत का उपयोग करना अनावश्यक है उसी प्रकार इस नगण्य साधारण वादी के लिये आपको कष्ट उठाने की प्रावश्यकता नहीं। मैं ही वहां जा कर अभी उसे परास्त किये देता हूं।" इन्द्रभृति ने कहा- "वत्स ! यह सर्वज्ञप्रलापी यों तो मेरे किसी भी छात्र के द्वारा भी जीता जा सकता है पर किसी भी प्रतिवादी का नाम सुनने के पश्चात मैं चुपचाप बैठ नहीं सकता। जिस प्रकार तिलराशि को पेरते समय कोई एक तिल का दाना, धान्य को दलते समय कोई एक धान्यकरण, घास को काटते समय कोई एक तृण और अन्न को पीसते समय कोई तुसकरण वचा रह जाता है, उसी प्रकार संसार के समस्त वादियों को परास्त करते समय किसी न किसी तरह यह वादी वचा रह गया है। अपने आपको सर्वज्ञ बताने वाले इस वादी को मैं किसी भी तरह सहन नहीं कर सकता । अव यदि इस एक वादी को मैं पराजित नहीं करता हूं तो मेरे द्वारा पराजित समस्त वादी अपराजित हो जायेंगे । क्योंकि सती स्त्री यदि एक वार अपने सतीत्व से स्वलित हो जाती है तो वह सदा के लिये दुराचारिणी कही जाती है।" "वत्स! मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि मैंने त्रैलोक्य के हजारों प्रतिवादियों को पराजित कर दिया फिर भी पाकशाला को हंडिया में पकाये गये अन्न में बिना पके एक कोरड़ की तरह यह एक वादी अपराजित कैसे बचा रह गया? इस एक के अनिजित रहने पर तो मेरा विश्वविजयित्व का समग्र यश ही नष्ट हो जायगा । क्योंकि शरीर में रहा हुआ एक साधारण शल्य भी, यदि उसका शमन नहीं किया जाय तो एक न एक दिन असाध्य वन कर प्रारणों का अपहरण कर लेता है। वत्स ! क्या एक जलयान में किसी भी तरह हुआ एक छोटा सा छिद्र भी उसे समुद्र में नहीं डुबो देता? क्या एक आधारभूत ईट को खींच लेने पर सारा दुर्ग ढह नहीं पड़ता?"' पस्मिन्नजिते सर्व, जगज्जयोद्भूतमपि यशो नश्येत् । अल्पमपि शरीरस्थं शल्यं प्राणान् वियोजयति ।।१६।। छिद्रे स्वल्पेऽपि पोत: किं पयोधी न निमज्जति । एकस्मिन्तिंष्टके कृष्टे, दुर्गः सर्वोऽपि पात्यते ॥१७॥ किल्प सुबोधिका पृ० ३८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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