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________________ ६२२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मार्य चन्द्र-गणाचार्य ऐसा प्रतीत होता है कि आर्य वज्रसेन ने अपनी विद्यमानता में ही अपने इन चारों शिष्यों को पृथक्-पृथक् श्रमण-समुदाय सम्हला कर प्राचार्य पद पर नियुक्त कर दिया था। आर्य चन्द्र से चन्द्रकुल, आर्य नागेन्द्र से नाइली शाखा (नागेन्द्रकुल), प्रार्य निर्वत्ति से निर्वत्ति कुल और आर्य विद्याधर से विद्याधर नामक ४ कुल प्रकट हुए।' चन्द्रकुल ही आगे चल कर चन्द्र गच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कतिपय प्राचार्यों ने आर्य चन्द्र, नागेन्द्र, निर्वृति और विद्याधर-इन चारों को किंचिदून १० पूर्वो का ज्ञाता बताया है। चन्द्रगच्छ से सम्बन्धित पट्टावली एवं टिप्परणों में इस प्रकार के उल्लेख दृष्टिगोचर होते हैं कि चन्द्र, नागेन्द्र आदि चारों प्राचार्यों में से प्रत्येक ने अपनेअपने सुविशाल शिष्य-समूह में से २१-२१ सुयोग्य श्रमणों को पृथक-पृथक रूप से प्राचार्य पदों पर नियुक्त किया, जिन से वीर नि. सं. ६११ में ४ गणों और ८४ गच्छों की उत्पत्ति हुई। __ गहराई से सोचने पर ऐसा प्रतीत होता है कि ८४ गच्छों की उत्पत्ति विषयक इस प्रकार का उल्लेख केवल इन चारों गच्छों का महत्त्व बढ़ाने की दृष्टि से किया गया है। इसमें यथार्थता होती तो उपाध्याय धर्मसागर 'तपागच्छ पदावली' में- "तस्माच्च क्रमेणानेक गरणहेतवोऽनेके सूरयो बभूवांसः'४ - इस प्रकार का प्रनिश्चित उल्लेख नहीं करते। इसके अतिरिक्त यदि इन ४ गरणों से ८४ गच्छ उत्पन्न हए होते तो उनमें से थोड़े बहत गच्छों का नामोल्लेख भी पट्टावली में अवश्य किया जाता। यही नहीं, अज्ञातकत्र्तक कुछ श्लोकों में इन चारों गच्छों के सम्बन्ध में परिचय देते हुए ८४ गच्छों का कोई उल्लेख न कर - . 'अद्यापि गच्छास्तन्नाम्ना, जयिनोऽवनिमण्डले ।'५ - इस पद से केवल इतना ही उल्लेख किया गया है कि उनके नाम से गच्छ आज भी विद्यमान हैं । उपरोक्त उल्लेखानुसार वीर नि० सं० ६११ में ८४ गच्छों की उत्पत्ति होने की बात सही मानी जाय तो पश्चाद्वर्ती काल में होने वाले बड़गच्छ, खरतरगच्छ, ' नागेन्द्र, चन्द्र, निर्वृति, विद्याधराख्यान् चतुरः सकुटुम्बान् इभ्यपुत्रान् प्रवाजितवान् । तेभ्यश्च स्व स्व नामांकितानि चत्वारि कुलानि संजातानीति । [तपागच्छ पट्टावली, भा. १, स्वोपजवृत्ति (प० कल्याण विजयजी) पृ. ७१] २ नागेन्द्रो निर्वृत्तिश्चन्द्रः, श्रीमान् विद्याधरस्तथा ।। प्रभूवंस्ते किचिदनदशपर्वविदस्ततः । चत्वारोऽपि जिनाधीशमतोद्धार धुरंधरा ।। [जन सा. संशोधक, खं. २, अं. ४ में प्रकाशित विचार श्रेणि के साथ का परि. १. १०] 3 आदी चत्वारो गणा, एकस्मिन् एकस्मिन् गच्छे एकविंशति प्राचार्याः स्थापिताः । एवं क्रमेण श्री वीरात् ६११ वर्षे ८४ गच्छा: संजाताः । [वही] ४ तपागच्छ पट्टावली, भा. १, (मुनि कल्याण विजय जी) पृ. ७१ ५ विचाररिण के साथ संलग्न परिशिष्ट, जन सा. सं. खं. २, अंक ४ में प्रकाशित । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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