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________________ ६७६ - जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [देवदि क्षमाश्रमण गम्भीरता प्रादि गणों के धारक, एक पूर्व के ज्ञाता एवं प्राचारनिष्ठ समर्थ वाचनाचार्य थे। जैसा कि कल्प स्थविरावली के अन्त की निम्नलिखित गाथा में कहा गया है : सुत्तत्थरयणभरिए, खमदममद्दव गणेहिं संपन्ने । देवड्ढिखमासमणे, कासवगुत्ते परिणवयामि ।।१४।। देवद्धि के सम्बन्ध में एक आख्यान प्रचलित है। उसके अनुसार प्रापका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है : सौराष्ट्र प्रान्त के वैरावल पाटण में आपका जन्म हुआ। उस समय वहाँ के शासक महाराज अरिदमन थे। उनके सामान्य अधिकारी काश्यप गोत्रीय कार्माद्ध क्षत्रिय की पत्नी कलावती की कुक्षि से देवद्धि का जन्म हुआ। प्राप पूर्वजन्म में हरिणंगमेषी देव थे। माता की कुक्षि में जब आप गर्भ रूप से उत्पन्न हुए तब गर्भ के प्रभाव से कलावती ने स्वप्न में ऋद्धिशाली देव को देखा प्रतः नामकरण के समय पुत्र का नाम देवद्धि रखा गया। माता-पिता ने बालक देवद्धि को समय पर योग्य शिक्षक के पास पढ़ाया और युवा होने पर दो कन्याओं के साथ उसका विवाह कर दिया। युवक देवद्धि बचपन की कुसंगति के कारण आखेट-क्रीड़ा का रसिक बन गया और समय-समय पर मित्रों के साथ जंगल में शिकार करने जाया करता था। नवोत्पन्न हरिशंगमेषी देव देवद्धि को सन्मार्ग पर लाने हेतु विभिन्न उपायों से समझाने का प्रयास करने लगा। एक दिन जब देवद्धि मृगयार्थ वन में गया तो उस देव ने उसके सम्मुख भयंकर सिंह, पीछे की ओर गहरी खाई और दोनों ओर दो बड़े-बड़े दंतशूल वाले बलिष्ठ शूकर खड़े कर दिये। देवद्धि भयभीत हो कर प्राण बचाने के लिये इधर-उधर बच निकलने का प्रयास करने लगे तो उन्होंने देखा कि उनके पैरों के नीचे की पृथ्वी कम्पायमान और ऊपर से बड़े वेग के साथ मूसलाधार वर्षा हो रही है। उस समय सहसा देवद्धि के कानों में ये शब्द पड़े - "अब भी समझ जा, अन्यथा तेरी मृत्यु तेरे सम्मुख खड़ी है।" भयविह्वल देवद्धि ने गिड़गिड़ा कर कहा- "जैसे भी हो सके मुझे बचाओ, तुम जैसा कहोगे वही मैं करने के लिये तैयार हूँ।" देव ने तत्काल उसे उठा कर प्राचार्य लोहित्य सूरि के पास पहुंचा दिया और देवद्धि भी आचार्य लोहित्य' का उपदेश सुन कर उनके पास श्रमणधर्म में दीक्षित हो गये । गरू की सेवा में निरन्तर ज्ञानाराधन करते हुए आपने एकादशांगी और एक पूर्व का ज्ञान-प्राप्त कर कालान्तर में प्राचार्य पद प्राप्त किया। देवद्धि क्षमाश्रमण पहले गणाचार्य पद पर अधिष्ठित किये गये और तदनन्तर दूष्यगरणी के स्वर्गगमन के पश्चात् प्रापको वाचनाचार्य पद प्रदान किया गया । इस कथानक के आधार पर ही संभवतः देवति क्षमाश्रमण को मार्य लोहित्य का शिष्य समझने की मान्यता प्रचलित हुई प्रतीत होती है। [सम्पादक] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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