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________________ पाटलिपुत्र में पागम-वाचना] दशपूर्वधर-काल : प्रायं स्थूलभर ४०५ आचार्य भद्रबाहु स्वामो भी कुछ श्रमणों के साथ नेपाल की ओर विहार कर गये । दुष्कालजन्य अन्नाभाव के कारण अनेक प्रात्मार्थी मुनियों ने संयम विराधना के भय से अनशन एवं समाधिपूर्वक भक्त-प्रत्याख्यान द्वारा देहत्याग कर अपना जीवन सफल किया। उन्होंने अपवाद की स्थिति में भी अपने संयम में शैथिल्य नहीं आने दिया। दुभिक्ष की समाप्ति और सुभिक्ष हो जाने पर विभिन्न क्षेत्रों में गये हुए श्रमण-श्रमणी-समूह पुनः पाटलीपुत्र लौटे । भीषण दुष्काल के दुस्सह परीषहों के भुक्तभोगी वे सब श्रमण परस्पर एक-दूसरे को देख कर ऐसा अनुभव करने लगे मानो वे परलोक में जा कर पुनः लौटे हों। २ सुदीर्घकाल की भूख-प्यास और पग-पग पर अनभूत विविध मारणान्तिक संकटों के कारण भ्रत का परावर्तन न हो सकने के फलस्वरूप बहुत सा श्रुत विस्मृत हो गया। वे एक-दूसरे से पूछने लगे कि किस-किस को कितना-कितना श्रुत याद है ? 3 जव सभी भ्रमणों ने देखा कि दीर्घकाल के दैवी प्रकोप के कारण श्रमण वर्ग समय पर एकादशांगी के पाठों का स्मरण,चिन्तन, मनन, पुनरावर्तन आदि नहीं कर सका है, जिसके परिणामस्वरूप सूत्रों के अनेक पाठ अधिकांश श्रमरणों के स्मृतिपटल से तिरोहित हो चुके हैं। तब अंग शास्त्रों की रक्षा हेतु उन्होंने यह आवश्यक समझा कि वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध एकादशांगी के पारगामी स्थविर एक जगह एकत्रित हो समस्त अंगों की वाचना करें और द्वादशांगी को क्षीण एवं विनष्ट होने से बचायें। ___इस प्रकार के निश्चय के पश्चात् आगमों की पहली वृहद्वाचना पाटलीपुत्र में लगभग वीर निर्वाण संवत् १६० में की गई। वहां उपस्थित समस्त श्रमरण उस वाचना में सम्मिलित हुए । श्रमरण-संघ के प्राचार्य भद्रबाहु उस समय नेपाल प्रदेश में महाप्राण ध्यान की साधना प्रारम्भ करने गये हुए थे अतः स्वर्गस्थ प्राचार्य सम्भूतविजय के शिष्य आर्य स्थूलभद्र के तत्वावधान में यह वाचना हुई। केहिं वि विराहणा-भीरुएहिं अइभीरुएहिं कम्माणं । समणेहिं संकिलिलैं, पच्चक्खायाई भत्ताई ॥६॥ [तित्थोगालियपइण्णा] २ (क) ते दाई एक्कमेक्कं, गयसेसा विरस दठूरण । परलोगगमणपच्चागयं व मण्णंति प्रप्पारणं ॥१२॥ [तित्थोगालिय प०] (ख) जाग्रो प्रतम्मि समए दुक्कालो दोय दस य वरिसाणि । .. सम्वो साहुसमूहो गयो तपो जलहितीरेसु ।। तदुवरमे सो पुरणरवि पाउलिपुत्ते समागमो विहिया। संघेण सुयविसया चिंता कि कस्स प्रत्येति ।। जं जस्स आसि पासे उद्देसज्झयणमाइ संघडिउं । तं सव्वं एक्कारय अंगाई तहेव ठवियाई॥ [उपदेशपद, हरिभद्रसूरिकृत] ते विति एक्कमिक्क, सम्भामो कस्स कित्तिमो धरंति । हंति दुठुकालेणं, मग्हं नट्ठो हु सम्भावो ।।१३।। [तित्योगालियपइन्ना (मप्रकाशित)] www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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