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________________ २०८ — जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [जम्बू को विरक्ति दृढ़ निश्चय के साथ प्रयत्नशील रहते हैं। जो प्राणी इस वास्तविकता को न. समझ कर अथवा समझते हुए भी मोह के बन्धनों से जकड़े हुए रह कर प्रमाद एवं आलस्य के वशीभूत हो अपनी प्राध्यात्मिक उन्नति के कार्य में अकर्मण्य रहते हैं, वे इस भयावह विकट भवाटवी में सदा सर्वदा असहायावस्था में भीषण एवं दारुण दु.खों को भोगते हुए भटकते रहते हैं।" आर्य सुधर्मा स्वामी के इस हृदयस्पर्शी उपदेश को सुनकर जम्बूकुमार का हृदय वैराग्य से ओतप्रोत हो गया। अपने अन्तर में असीम आत्मतोष का अनुभव करते हुए वे आर्य सुधर्मा के समीप आये और सविधि वन्दन के साथ आर्य सुधर्मा के पावन चरणों में अपना शीश रखते हुए अति विनीत स्वर में बोले-"स्वामिन् ! मैंने आपसे सच्चे धर्म का स्वरूप सुना । मुझे वह बड़ा रुचिकर और आनन्दप्रद लगा। आपके द्वारा बताये गए धर्म के स्वरूप पर मेरे हृदय में प्रगाढ़ श्रद्धा उत्पन्न हुई है। मैं अब अपने माता-पिता से प्राज्ञा प्राप्त कर आपके चरणों की शरण में दीक्षित हो पात्म कल्याण करना चाहता है।" आर्य सुधर्मा ने कहा - "सौम्य ! जिससे तुम्हें सुख हो, वही कार्य करो, शुभ कार्य में विलम्ब करना उचित नहीं।" जम्बुकुमार ने आर्य सुधर्मा को प्रणाम किया और रथारूढ़ हो वे द्रुतगति से अपने भवन की ग्रोर लौटे। नगर के द्वार पर अनेक रथों, यानों और वाहनों की भीड़ देख कर विलम्ब की अाशंका से साथी को दूमरे द्वार से नगर में प्रवेश करने का अादेश दिया। सारथी ने 'जो ग्राना' कह कर शीघ्र ही रथ को मोड़कर नगर के दूसरे द्वार की ओर बढ़ा दिया। अति घोर प्रतिज्ञा शत्रुओं का संहार करने के लिए उस द्वार पर मजबूत रम्मों से मिलाएं, शतघ्नी, कालचक्र प्रादि संहारक शस्त्र. लटकाये हुए थे। जम्बुकुमार ने उनको दूर से ही देख कर मन ही मन सोचा - "इन शस्त्रों में से यदि कदाचिन एक भी शस्त्र मेरे रथ पर गिर जाए तो बिना व्रत ग्रहगा किर ही मेरी मृत्यु मनिश्चित है और मैं दुर्गति का अधिकारी हो सकता हं ।'' इस प्रकार का विचार अाते ही जम्वृकुमार ने गुगाणील चन्य को और रथ लौटाने का मारथी को ग्रादेश दिया। “यथाज्ञापयति देव ! ' कह कर मारथी ने भी रासों के संकेत मे ग्थ को घुमाया गौर ग्राणुगामी अश्व रथ को लिए गुगाशील नेत्य की अोर सरपट न ले। कुछ ही क्षम्गों में ग्थ उपवन के द्वार पर जा सका। जम्बकुमार रथ मे उतर कर ग्रार्य मृधर्मा की सेवा में पहने और मविधि वन्दन के पश्चात् उन्होंने निवेदन किया - "भगवन् ! मैं ग्राजीवन बहानयंत ग्रहगा करना नाहता हूँ। ' कल्पानवाच्यानि, पत्र ४१-८८ (हम्नलिगित). अनवर भगटार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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