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________________ १२८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [४. समवायांग भोग के पश्चात् सिद्ध होने का उल्लेख है। समवाय संख्या ६६ में प्रत्येक चक्रवर्ती के ९६ करोड़ गांव होने का उल्लेख है। १७ वीं समचाय में पाठ कर्मों की ६७ उत्तर-प्रकृतियां तथा भगवान् नमिनाथ के समय में हुए हरिषेण चक्रवर्ती के ६७०० वर्ष से कुछ कम गहवास में रहने के पश्चात् दीक्षित होने का उल्लेख है। १८ वीं समवाय में रेवती से ज्येष्ठा पर्यन्त के १६ नक्षत्रों के १८ तारे बताये गये हैं। ६९ वीं समवाय में मेरू पर्वत को भूमि से १६ हजार योजन ऊंचा बताया गया है। १०० वें समवाय में शतभिषा के १०० तारे और भगवान् पार्श्वनाथ एवं स्थविर आर्य सुधर्मा की पूर्ण आयु १००-१०० वर्ष बताई गई है। उपरोक्त १०० समवायों के पश्चात् क्रमशः डेढ सौ, दो सौ, ढाई सौ, तीन सो, साढे तीन सौ, चार सौ, साढे चार सौ, पांच सौ यावत् एक हजार, ११००, दो हजार से १० हजार, एक लाख से आठ लाख तथा कोटि संख्या वाली विभिन्न वस्तुओं का उल्लिखित संख्या के अनुसार पृथक-पृथक ३२ समवायों में संकलनात्मक विवरण दिया गया है । कोटि समवाय में भगवान महावीर के तीर्थकर भव से पहले छठे पोटिल के भव का एक करोड़ वर्ष का श्रामण्य-पर्याय बताया गया है। तदनन्तर कोटाकोटि समवाय में भगवान् ऋषभ देव से भगवान् महावीर के बीच का अन्तर एक कोटाकोटि सागर बताया गया है । कोटाकोटि समवाय के पश्चात् १२ सूत्रों में द्वादशांगी का "गणिपिटक" के नाम से सारभूत परिचय दिया गया है । तदनन्तर १५७ वें सूत्र में समवसरण के वर्णन तथा जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र की प्रतीत उत्सपिणी एवं अवसर्पिणी के कुलकरों तथा वर्तमान अवसर्पिणी के कुलकरों तथा उनकी भार्याओं का वर्णन करने के पश्चात् वर्तमान अवसर्पिणी काल के २४ तीर्थंकरों के सम्बन्ध में बड़ा ही महत्वपूर्ण विवरण दिया गया है । तीर्थंकरों से सम्बन्धित उस विवरण में चौबीसों तीर्थंकरों के पिता तथा माता के नाम, तीर्थंकरों के पूर्वभवों के नाम, तीर्थंकरों की शिबिकानों, जन्मभूमियों, देवदूष्य, दीक्षा-साथी, दीक्षा-तप, प्रथम भिक्षादाता, प्रथम भिक्षा का समय, प्रथम भिक्षा में मिले पदार्थ, तीथंकरों के चैत्यवृक्ष, उन चैत्यवृक्षों की ऊंचाई, चौबीस तीर्थंकरों के प्रथम शिष्यों और प्रथम शिष्याओं के सम्बन्ध में संक्षिप्त एवं परमोपयोगी विपुल जानकारी दी गई है। इसमें यह भी बताया गया है कि तीर्थंकर अन्यलिंग, गृहलिंग अथवा कुलिंग में कभी नहीं होते। ___ सूत्र संख्या १५८ में चक्रवतियों, बलदेवों और वासुदेवों के सम्बन्ध में मावश्यक परिचय और प्रतिवासुदेवों के नाम मात्र दिये गये हैं। यह उल्लेखनीय है कि सभवायांग में प्रतिवासुदेवों की महापुरुषों में गणना नहीं की गई है। सूत्र संख्या १५६ में सर्वप्रथम जम्बूद्वीप के ऐरवत क्षेत्र में हुये इस अवसर्पिणी के २५ तीथंकरों, भरत क्षेत्र की प्रागामी उत्सपिणी के सात कुलकरों, ऐरवत क्षेत्र की भावी उत्सपिणी के १० कुलकरों और भरतक्षेत्र तथा ऐरवत क्षेत्र के आगामी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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