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________________ दशपूर्वधर काल : प्रार्य स्थूलभद्र वररुचि को प्रतिस्पर्धा यथार्थतः राज्यतन्त्र का व्यवस्थित रूप से संचालन बड़ा काठन कार्य है क्योंकि गज्यतन्त्र अथवा राजनीति स्वयं एक अस्थाई तत्व है । शकटार के जीवन का अन्तिम समय वस्तुतः राजनैतिक दृष्टि से बड़ा ही विषम और विकट था । चरमोत्कर्ष के पश्चात् नन्द का राज्य संभवतः प्रकृति के नियम के अनुसार अपने पतन की प्रतीक्षा में पतन के गहन गर्त की कगार की ओर अग्रसर होना चाहता था। शकटार के बुद्धिकौशल द्वारा संचालित नन्द का राज्यतन्त्र स्वचालित यन्त्र की तरह सुनियोजित ढंग से स्वतः ही चलता हुआ प्रतीत हो रहा था। राज्य के छोटे से छोटे कार्य से लेकर बड़े से बड़े कार्य में सर्वत्र शकटार का वर्चस्व था। प्रचण्ड मार्तण्ड के प्रबल प्रताप से उलूक के मन में ईर्ष्या का उत्पन्न होना नैसर्मिक है। शकटार के प्रवल प्रताप को देखकर वररुचि नामक विद्वान् के मन में ईप्या उत्पन्न हई और शनैः शनैः विद्वान वररुचि मन्त्रीश्वर शकटार का प्रबल प्रतिस्पर्धी बन गया । अपने प्रकाण्ड पाण्डित्य के माध्यम से राजा और प्रजा के मन में अपने लिये स्थान बनाने की दृष्टि से वररुचि राजा की प्रशंसा में प्रतिदिन नवीनतम काव्य-रचना सुनाकर राजां से प्रतिष्ठा के साथ-साथ अर्थप्राप्ति का प्रयत्न करने लगा। महाराजा नन्द अपने महामात्य शकटार की मर्मज्ञता से पूर्णरूपेण प्रभावित था। शकटार के मुख से वररुचि की काव्यरचना की श्लाघा में एक भी शब्द न सुनकर नन्द ने न तो वररुचि के अभिनव एवं सुन्दर काव्यों की कभी सराहना ही की और न कभी प्रसन्न हो उसे उसकी काव्यरचना के उपलक्ष में अर्थ ही प्रदान किया । अथक प्रयास से तैयार की गई सुन्दर से सुन्दरतम काव्यरचना पर भी जब वररुचि को राजा की ओर से किसी प्रकार का परितोषिक प्राप्त नहीं हुआ तो वररुचि वस्तुस्थिति को समझ गया। बहुत सोच विचार के पश्चात् वररुचि ने साहित्य की मर्मज्ञा शकटार-पत्नी लक्ष्मीदेवी को अपनी काव्यरचनाओं से प्रसन्न करने का प्रयास प्रारम्भ किया। वह प्रतिदिन विदुषी लक्ष्मीदेवी की सेवा में उपस्थित हो अपनी नवीनतम रचनाएं सुनाने लगा। अपने पदलालित्य से लक्ष्मीदेवी को प्रसन्न कर वररुचि ने उससे प्रार्थना की कि मन्त्रीश्वर शकटार को कह कर वह नन्द की राज्यसभा में उसकी काव्यकृतियों की प्रशंसा करवाये । वररुचि द्वारा की गई चाटुकारिता से प्रसन्न हो लक्ष्मीदेवी ने अपने पति से प्रार्थना की कि अर्थार्थी ब्राह्मण वररुचि को लाभ पहेचाने के लिये वे उसके काव्यों की राज्यसभा में प्रशंसा करें। अपनी विदुषी गृहिणी के आग्रह से दूसरे दिन शकटार ने वररुचि के काव्य की राज्यसभा में प्रशंसा की। फलतः नन्द ने प्रसन्न हो वररुचि को उसके काव्यपाठ के उपलक्ष में १०८ स्वर्णमुद्राएं प्रदान की। ___ वररुचि नित्यप्रति अपनी नवीन काव्य रचनाएं नन्द के दरबार में सुनाता और उसे तत्काल १०८ स्वर्णमुद्राएं मगधाधिप महाराज नन्द के कोश से मिल जातीं। यह क्रम निरन्तर अनेक दिनों तक चलता रहा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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