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________________ ८२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्राचारांग है उसी प्रकार साधक घोरातिधोर परीषहों को निर्भय और स्थिरभाव से सहन करते हुए मृत्युकाल उपस्थित होने पर पादोपगमन आदि अनशन कर जब तक प्रात्मा शरीर से पृथक न हो जाय तब तक आध्यात्मिक चिन्तन में स्थिरभाव से दत्तचित्त रहे। सातवां अध्ययन सात उद्देशकों वाला “महापरिज्ञा" नामक सातवां अध्ययन वर्तमान काल में उपलब्ध नहीं है। ऐसी स्थिति में उसके अन्तर्गत किन-किन विषयों पर विवेचन किया गया था इस पर साधिकारिक रूपेरण कोई प्रकाश नहीं डाला जा सकता। यह महापरिज्ञा अध्ययन किस समय विलुप्त हुआ, इसके सम्बन्ध में निश्चित रूप से तो नहीं कहा जा सकता परन्तु कुछ तथ्यों के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि विक्रम संवत् ५६२ के पश्चात् विक्रम सं० ६३३ से पहले किसी समय में महापरिज्ञा अध्ययन उच्छिन्न हुआ होगा। शीलाचार्य अपर नाम तत्वादित्य'. ने शक संवत् ७६८ की वैशाख शुक्ला ५ के दिन प्राचारांग की टीका का लेखन सम्पूर्ण किया।२ प्राचारांग सूत्र की टीका में प्रथम श्रुतस्कन्ध के छठे अध्ययन की टीका सम्पूर्ण करने के पश्चात् लिखा है- "छठे अध्ययन की टीका समाप्त हुई। अब सातवें अध्ययन की टीका करने का अवसर समुपस्थित है किन्तु सातवां अध्ययन विच्छिन्न हो चुका है अतः उसे छोड़ कर पाठवें अध्ययन के सम्बन्ध में कहा जा रहा है।"3 आचारांग टीका में उपलब्ध उपरोक्त उल्लेखों से यह तो निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि शक सं० ७९८ तदनुसार विक्रम सं० ६३३ में महापरिज्ञा अध्ययन विद्यमान नहीं था और उससे पहले ही यह विलुप्त हो चुका था। अब यह देखना है कि महापरिज्ञा अध्ययन किस समय तक विद्यमान था। आज दुर्भाग्यवश महापरिज्ञा अध्ययन तो उपलब्ध नहीं पर सौभाग्य से इस पर लिखी हुई नवगाथात्मक नियुक्ति उपलब्ध है। आचारांग-नियुक्ति में महापरिज्ञा नामक सातवें अध्ययन के विलुप्त होने का कोई उल्लेख न होना और उसमें इस अध्ययन की नियुक्ति का अस्तित्व, इन दो प्रबल प्रमारणों से यह निविवादरूपेरण सिद्ध हो जाता है कि नियुक्ति की रचना के समय नियुक्तिकार के समक्ष महापरिक्षा अध्ययन विद्यमान था। 'ब्रह्मचर्याख्य श्रुतस्कंधस्य निवृत कुलीनश्री शीलाचार्येरण तत्वादित्यापरनाम्ना वाहरिसाधु. सहायेन कृता टीका परिसमाप्तेति श्लोकतो ग्रन्थमानं ६७६ । [पाचारांम, प्र०७० स्कं०, शीलोकाचार्यकृत टीका, पृ० ४२७] २ शकवृषकालातीतसंवत्सरशतेषु सप्नगु अष्टानवतीत्यधिकेषु वैशाखशुक्ल पंचम्यां २ आचार____टीका कृतेति । [वही, द्वितीय श्रु तस्कन्ध, पृ० २८१] 3 उक्त षष्टमध्ययनमधुना सप्तमाध्ययनस्य महापरिज्ञास्यस्यावसरस्तच्च व्यवच्छिन्नमितिकृत्वातिलंघ्याष्टमस्य संबन्धो वाच्यः। [वही, पृ० ३४२ : धनपतिसिंह आगमसंग्रहः] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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