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________________ देवशर्मा को प्रतिबोध केवलिकाल : इन्द्रभूमि गौतम प्रतिवोध देने और उसे प्रतिबोध देने के पश्चात् चम्पा नगरी में जाकर सुभद्रा थाविका को धर्म-संदेश सुनाने का प्रादेश देकर भेजा था। भगवान् की आज्ञानुसार देवशर्मा को प्रतिबोध देकर जब इन्द्रभूति गौतम चम्पा नगरी में सुभद्रा श्राविका के घर पहुंचे तो वहां सुभद्रा धाविका ने उन्हें भगवान महावीर के निर्वाण प्राप्त कर लेने का समाचार सुनाया ।' परम्परागत मान्यता यह है कि अर्द्धरात्रि के पश्चात् निर्वाणोत्सव मनाने हेतु देवों के ग्राकाशमार्ग से गमनागमन को देखकर ज्ञानोपयोग से इन्द्रभूति गौतम को विदित हो गया कि भगवान् महावीर ने निर्वाण-पद प्राप्त कर लिया है । "मेरे आराध्य देव श्रमण भगवान् महावीर का निर्वाण हो गया है", इस बात का विचार आते ही इन्द्रभूति गौतम क्षण भर के लिये स्तब्ध रह गये । इन्द्रभूति गौतम का श्रमण भगवान् महावीर के प्रति प्रगाढ़ अनुराग होने के कारण वे शोकसागर में निमग्न हो गये और उनके शोकसंतप्त अन्तरंग से हठात् इस प्रकार के करुणोद्गार प्रकट होने लगे : _____ भगवान महावीर के निर्वाण पर इन्द्रभूति का चिन्तन "शोक ! महाशोक ! आज मिथ्यात्व अपना निबिडान्धकार फैलाने में समर्थ हो गया। रात्रि के अन्धकार में जिस प्रकार उलूक बोलते हैं उसी तरह अब मिथ्या-मत के प्रवर्तक गर्जना करने लगेंगे। अब दुर्भिक्षादि का यत्र-तत्र प्रसार होगा। जिस प्रकार राहु द्वारा सूर्य के ग्रस्त कर लिये जाने पर गगन में और दीपक के बुझ जाने पर भवन में अन्धकार व्याप्त. हो जाता है, उसी प्रकार हे त्रैलोक्य-प्रभाकर प्रभो! आपके निर्वाणपद को प्राप्त हो जाने के कारण आज समस्त भरतक्षेत्र तिमिराच्छन्न और श्रीहीन हो गया है। नाथ ! अब में किनके चरण-कमलों पर अपना मस्तक रखकर अपने अन्तर में उद्भूत हुई शंकाओं के समाधान हेतु ' दुहविवगमोहहारी, सामी भरणइ गोयमं । पुहविवाग मोहं तं, पेच्छन्तो तह चेव से ।। वच्च गोयम चंपाए, बोहंतो मग्गसंठियं । देव समट्टियं ततो, चंपं पत्तो पुरि तुमं ।। पत्ता उ छपएणं मे, संभासिज्जेसु मायरं । सुढ़धम्मं जिणणाए, सुभई नाम सावियं ॥ सोउं च गोयमो धीमं, चोत्तुं (वोत्तुं) भंते तहत्ति य । तत्तो सिग्धं विणायप्पा, निवियप्पो गयो तहिं ।। गोयमेण विमगत्थ देवसम्म माहणं संबोहित्ता चंपाए गंतुं महावीर-भरिणयं साहिऊरण सविसेसं भासिया सुभद्दा तीए वि विणाय परमत्याए भरिणयं सिद्धो सामी....... कहावली (मप्रकाशित)] २ देखिये, जैन धर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम भाग, पृष्ठ ४७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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