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________________ ५५८. जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मार्य पादलिप्त आपकी स्तुति करते हैं । केवल यह विदुषी वेश्या गुणज्ञा होकर भी आपकी स्तुति नहीं करती। आप कोई ऐसा उपाय कीजिए जिससे यह भी आपकी स्तुति करे।" - राजा की बात सुनकर आचार्य पादलिप्त अपने स्थान पर चले पाये और रात्रि में गच्छ की सम्मति से प्राण निरोध कर कपट मृत्यु से निष्प्राण हो लेट गये। प्राचार्य को प्रर्थी पर लिए जब लोग रुदन करते हुए उस गरिणका के द्वार पर पहुंचे तो वह भी द्वार पर पाई और रुदन करती हुई बोली : सीसं कहवि न फुट्ट जमस्स पालित्तयं हरंतस्स। जस्स मुहनिझराम्रो तरंगलोला नई बूढा ।। अर्थात्-अरे! उन पादलिप्त का हरण करते समय यमराज का शिर क्यों नहीं फूट गया, जिनके मुख रूपी निर्भर से 'तरंगलोला' तरंगवती नदी प्रवाहित हुई है ? प्राचार्य यह सुनकर तत्काल उठ बैठे। गणिका ने कहा - "प्राचार्यवर! क्या प्राप मर कर स्तुति करवाते हैं ?" .. प्राचार्य ने कहा- "क्या तुमने नहीं सुना - 'मृत्वापि पंचमो गेयः' - मर कर भी पंचम वेद गाना चाहिये। . कितना चमत्कारपूर्ण उत्तर है ? प्रभावक चरित्र में गणिका के स्थान पर पांचाल नामक विद्वान् के नामोल्लेख के साथ यही कथानक दिया गया है। प्राचार्य पादलिप्त ने अपने प्राचार्य काल में स्व-पर कल्याण के साथ-साथ जिनशासन की बड़ी ही उल्लेखनीय सेवाएं की।" प्राचार्य पादलिप्त ने 'तरंगवती', 'निर्वाणकलिका' एवं 'प्रश्न प्रकाश आदि ग्रन्थों की रचनाएं की। 'तरंगवती' प्राकृत कथा साहित्य का ग्रन्थरत्न माना जाता है। प्राचार्य पादलिप्त के जीवन से सम्बन्धित कतिपय घटनामों के पर्यवेक्षण से उनका विहार-क्षेत्र बड़ा विस्तृत प्रतीत होता है। मान्यखेट का कृष्णराजा, मोकारपुर का भीमराजा आदि अनेक राजा-महाराजा उनके अनुयायी थे। पाटलिपुत्र, भृगुकच्छपुर प्रादि में उन्होंने अपने प्रभाव का प्रयोग कर अन्य मतावलम्बियों द्वारा जैन धर्मावलंबियों के विरोध में उत्पन्न किये गये वातावरण को शान्त कर अनेक लोगों को जैन-धर्म का अनुयायी बनाया। प्राचार्य पादलिप्त के सम्बन्ध में जैन साहित्य में अनेक कथानक प्रचलित हैं। उनमें बताया गया है कि वे औषधियों के पादलेप द्वारा गगनमार्ग से विचरण करते थे। इस विद्या से प्रभावित होकर ढंक गिरि का निवासी नागार्जुन नामक एक क्षत्रिय उनका अनन्य उपासक बन गया। नागार्जुन का परिचय पृथकतः यथास्थान दिया जायगा। ' रागस्य पंचमो वेदः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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