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________________ २१४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग जम्बू का विवाह अपने लाडले लाल को अनुपम रूप-लावण्यवती पाठ पुत्रवधुनों के साथ देख-देख कर प्रफुल्लवदना मां धारिणी परम प्रसन्न मुद्रा में उनकी वलयां ले रही थी। श्रेष्ठी ऋषभदत्त और धारिणी ने अपने पुत्र के विवाहोत्सव की खुशी के उपलक्ष में मुक्तहस्त हो स्वजनों, स्नेहियों, पाश्रितों और अपाहिजों को मनचाहा द्रव्य देकर संतुष्ट किया। निशा के आगमन के साथ ही बहुमूल्य वस्त्राभूषणों से अलंकृत जम्बूकुमार ने पाठों नव वधुनों के साथ अपने भवन में सजाये गये सुन्दर शयन-कक्ष में प्रवेश किया। विशाल कक्ष के मध्य भाग में अत्यन्त सुन्दर कला-कृतियों के प्रतीक ६ सुखासन एक दूसरे के सन्निकट गोलाकर में रखे हुए थे। जम्बुकुमार ने उनमें से मध्यवर्तो सिंहासन पर बैठते हुए सहज मृदु एवं शान्त स्वर में अपनी पत्नियों को प्रासनों पर बैठने को कहा । प्रथम मिलन की वेला में मुख पर मधुर मुस्कान और अन्तःकरण में अगणित अरमान लिये कुछ सकुचाती कुछ लजाती हुई सी वे आठों अनुपम सुन्दरियां अपने प्राणवल्लभ के दोनों पार्श्व में बैठ गईं। पत्नियों को प्रतिबोध वातावरण की मादकता, माधुरी और मोहकता चरम सीमा तक पहुंच चुकी थी। उत्कृष्ट कोटि के सुगंधित द्रव्यों की महक से कक्ष गमक रहा था। प्रथम मिलन की रात, रूप सुधा से ओत-प्रोत सरिताओं के समान इठलाती, बल खाती, कनकलतातुल्य पाठ कामिनियां, अंगडाइयां लेता हा नवयौवन, एकान्त कक्ष, सहज सुलभ सभी भोग्य सामग्रियां किन्तु जम्बूकुमार के मन पर इन सब का किंचित्मात्र भी प्रभाव नहीं। वे तो जलगत कमल के समान बिल्कुल निर्लिप्त, वीत-दोष की तरह विरक्त एवं निर्विकार बने रहे। नववधुएं अपने जीवनधन जम्बुकुमार के अति कमनीय, परमकान्त मुखचन्द्र की ओर निनिमेष दृष्टि से अपनी सभी सुध बुध भूले इस प्रकार निहार रही थीं मानों वर्षों से चंद्रिका की प्यासी पाठ चकोरियां पूर्ण चन्द्र की ओर अपलक देखती हुईं अपनी यांखों की प्यास बुझा रही हों। वातावरण की निस्तब्धता को भंग करते हुए जम्बुकुमार ने अपनी प्राठों पत्नियों को सम्बोधित किया - "भव्यात्माओं ! आपको विदित ही है कि मैं कल प्रातःकाल प्रवजित होकर मुक्तिपथ का पथिक होने जा रहा हूँ। संभवत: ग्राप आश्चर्य कर रहीं होंगी कि मैं विषयोपभोग योग्य इस तरुण वय में अपार वैभव का परित्याग कर भोगों से विमुख हो त्याग मार्ग की ओर उन्मुख क्यों हो रहा है। मेरे द्वारा त्याग मार्ग अपनाने के औचित्य को आप शीघ्र ही भलीभांति समझ सके इसलिए मैं सर्व प्रथम एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ । वह यह है कि ये सांसारिक विषय भोग मानव को उसी समय तक सुखप्रद प्रतीत होते हैं जव तक कि उसके हृदय में तत्ववोध न होने के कारण मूढ़ता व्याप्त है। जीवाजीवादि तत्वों का वोध होते ही मानव के हृदय में व्याप्त विमूढ़ता विनष्ट हो जाती है और वह तत्वविद् व्यक्ति प्रबुद्धचेता बन जाता है । तत्ववेता बन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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