SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [जन्म नि० काल निर्णय मुनिवर गुणपाल द्वारा रचित "जम्बूचरियं" में भी स्पष्ट उल्लेख है कि जिस समय जम्बूस्वामी ने दीक्षा ग्रहण को उससे पहले हो भगवान् महावीर का निर्वाण हो चुका था। जम्बूकुमार को दीक्षार्थ जाते हए देख कर राजगह नगर के नर-नारियों ने जो अपने अन्तर्मन के उद्गार अभिव्यक्त किये थे उनका चित्रण करते हुए जम्बूचरियं के रचनाकार ने स्पष्ट लिखा है : __"जिस प्रकार सूर्य से विहीन नभ-मण्डल और भगवान महावीर के निर्वाण से भारतवर्ष शून्य (सुनसान) प्रतीत होता है उसी प्रकार जम्बूकुमार के दीक्षित हो चले जाने पर समस्त मगधपुर (राजगृह) शून्य हो जायगा।' इस उल्लेख से स्पष्ट है कि जम्बू स्वामी की दीक्षा के समय भगवान् महावीर का निर्वाण हो चुका था। जम्बू श्रमरण की प्रश्न-परम्परा : श्रमणधर्म में दीक्षित होने के पश्चात् प्रार्य जम्बू अहर्निश अपने आराध्य गुरु सुधर्मा स्वामी की सेवा में श्रुताराधन करने लगे। कठोर तपश्चरण के साथ विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करते हुए वे एकाग्रचित्त हो पागमों के अध्ययन में निरत रहते। जिस प्रकार प्रथम गणघर इन्द्रभूति गौतम अपने अन्तर में उत्पन्न हुई जिज्ञासाओं, शंकाओं इवं कुतूहलों के समाधान हेतु पूर्ण श्रद्धा के साध जगद्गुरु भगवान् महावीर के समक्ष परम विनीत भाव से उपस्थित होते थे, ठीक उसी प्रकार जम्बू अरणगार भी, अपने मन में कभी किसी प्रकार की शंका अथवा जिज्ञासा उत्पन्न होती तो अपने श्रद्धास्पद गुरु सुधर्मा स्वामी की सेवा में उपस्थित होते और अपनी जिज्ञासामों की शान्ति के लिये अनेक प्रश्न प्रस्तुत करते । आर्य सुधर्मा भी भगवान् महावीर से प्राप्त प्रवाह ज्ञान के अनुसार अपने परम विनीत और सुयोग्य शिष्य जम्बू की सभी शंकामों, जिज्ञासाओं और कुतहलों का समिचीन रूप से समाधान कर उन्हें पूर्णरूप से संतुष्ट करते। ___इस प्रकार प्रगाढ़ श्रद्धा, विनय और निष्ठा के साथ अध्ययन करते हुए तीक्ष्ण बुद्धि जम्बू स्वामी ने स्वल्प समय में ही द्वादशांगी रूप प्रगाध श्रुतसागर का अर्थ, व्याख्या और विस्तारादि सहित सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया। .. ____ गुरु द्वारा अपने शिष्य को प्रागमों का ज्ञान देने की वह परम्परा अविच्छिन्न रूप से आगे से आगे पश्चाद्वर्ती काल में भी चलती रही । जैनागमों को आज तक यथावत् रूप में बनाये रखने का सारा श्रेय प्रागमज्ञान केमादानप्रदान की उस पुनीत परम्परा को ही है। इसी परम्परा के कारण भगवान् महावीर द्वारा अनुप्राणित, ' नहभोयं रविरहियं, भारहवासं व जिणवरविहीणं । एएण विणा एवं होहो मुन्नं व मगहपुरं ।।४७०।। बिम्परियं (गुणपाल), उ० १६] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy