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________________ अन्य मान्यता भेद] केवलिकाल : प्रार्य जम्बू २३५ साथियों के साथ जम्बकूमार के घर में चोरी करने हेतु धूसा, वहाँ दिगम्बर परम्परा प्रभव के स्थान पर विद्युच्चर चोर का, चोरी करने के अभिप्राय से जम्बूकुमार के घर में प्रवेश करना मानती है । संयोग की बात है कि दोनों ही परम्पराएं जम्बूकुमार के घर में चोरी करने हेतु प्रविष्ट होने वाले चौरराट् को क्षत्रिय राजकूमार मानती हैं। श्वेताम्बर परम्परा में प्रार्य प्रभव को विन्ध्य की तलहटी के जयपुर नामक राज्य का राजकुमार और दिगम्बर ग्रन्थकारों ने विद्युच्चर को हस्तिनापुर जैसे शक्तिशाली राज्य का राजकुमार बताया है।' दिगम्बर परम्परा के विद्वान् कवि राजमल्ल ने विद्युच्चर के साथ दीक्षित हुए प्रभव आदि ५०० चोरों के सम्बन्ध में लिखा है कि वे सभी राजकुमार थे। उन्होंने जम्बूस्वामीचरित्र में प्रभव का दो स्थलों पर नामोल्लेख करते हुए लिखा है कि विद्युच्चर के साथ प्रभव आदि चोर भी दीक्षित हुए और भूत-प्रेतराक्षसादि द्वारा उपस्थित किये गये घोरांतिघोर परीषहों से भी विचलित न हो कर द्वादश अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करते हुए विधुच्चर सर्वार्थसिद्ध में और प्रभव प्रादि ५०० मुनि सुरलोक में देवरूप से उत्पन्न हुए। अपभ्रंश के कवि वीर ने वि० सं० १०७६ में रचित "जम्बूसामिचरिउ" में प्रभव का कहीं नामोल्लेख भी नहीं किया है । श्वेताम्बर परम्परा में जैसा कि आगे बताया जायगा प्रार्य प्रभव का बहुत ऊंचा स्थान है । उन्हें जम्बू स्वामी का उत्तराधिकारी और भगवान महावीर का तृतीय पट्टधर माना गया है । पर दिगम्बर परम्परा में जम्बू स्वामी का उत्तराधिकारी विद्य च्चर अथवा प्रभव को न मान कर आर्य विष्णु को माना गया है। दिगम्बर परम्परा के ग्रंथों में जम्बूकुमार द्वारा महाराज श्रेणिक की हस्तिशाला में से बन्धन तुड़ा कर भागे हुए मदोन्मत्त हाथी को वश में करने का और विद्याधर मृगांक की सहायतार्थ विद्याधरराज रत्नचूल से युद्ध करने और युद्ध में उसे दो बार पराजित करने का उल्लेख किया गया है। किन्तु श्वेताम्बर मरम्परा द्वारा मान्य किसी ग्रंथ में इन दोनों घटनामों का कहीं कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता। प्रपात्र मगधे देशे, विद्यते नगरं महत् । हस्तिनापुरं नाम्ना, स्वर्लोकैकपुरोपमम् ॥२८॥ तत्रास्ति संवरो नाम्ना, भूपो दोदंडमंडितः । तस्य भार्यास्ति श्रीषेणा, कामयष्टिः प्रियंवदा ॥२६॥ तयोः सूनुरभून्नाम्ना, विद्वान् विद्युच्चरो नृपः । शिक्षिताः सकला विद्या, वर्षमानकुमारतः ॥३०॥ [जपू. च०सगं .५] शतानां पंचसंख्याकाः प्रभवादिमुनीश्वराः भंते सल्लेखनां कृत्वा दिवं जग्मुर्यथायथम् ॥१६॥ [वही सर्ग १३] } सिरिगोदमेण दिण्णं सुहम्मणाहस्स तेण जंबुस्स । विण्हू गदिमित्तो तत्तो य पराजिदो तत्तो ॥४३॥ [पंगपण्णती] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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