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________________ १६२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग | प्रश्नव्याकरण और क्रयदोष से रहित हो, उद्गम, उत्पादना एवं एषणा दोष से रहित, नवकोटिशुद्ध हो, वह भिक्षा साधु के ग्रहरण करने योग्य बताई गई है । कथाप्रयोजन से लाई हुई भिक्षा तथा मंत्र, मूल, भैषज्य, स्वप्नफल और ज्योतिष आदि बताने के उपलक्ष में दी जाने वाली भिक्षा को साधु के लिए अग्राह्य और निषिद्ध बताया गया है । हिंसा का प्रवचन भगवान् ने प्राणिमात्र के हित और उनके जन्मान्तर के कल्याण के लिए दिया है। इसमें अहिंसा व्रत की रक्षा के लिए ५ भावनाएं बताई गई हैं। प्रथम भावना में स-स्थावर जीवों की दया हेतु ईर्या -समिति से अर्थात् देख कर चलना । दूसरी मनममिति में अशुभ एवं प्रधार्मिक विचार नहीं करना । तीसरी वाक्समिति में सावद्य वचन से बचकर निर्दोष भाषा बोलना । चौथी एषण समिति में भिक्षेषरगा में नियुक्त मुनि को निर्देश दिया गया है कि वह घर-घर से थोड़ी-थोड़ी भिक्षा ग्रहण करे और गुरु के समक्ष भिक्षा निवेदित कर आलोचना करे । तदनन्तर प्रमादरहित एवं प्रशान्तरूपेण बैठकर क्षण भर शुभ योगों का चिन्तन करे और उसके पश्चात् छोटे-बड़े सभी साधुनों को निमन्त्रित एवं शरीर को साफ कर मूर्च्छारहित हो श्राहार करे । खाते समय सुरसुर अथवा अन्य किसी प्रकार का शब्द न करे अर्थात् भोजन करते समय मुंह न बोलावे, भूमि पर भोजन का श्रंश नहीं गिरावे, केवल साधना हेतु प्रारण धारण करने के लिए रागद्वेषविहीन भाव से प्रहार करे। पांचवीं प्रदान- निक्षैपरणासमिति में पीठ, फलक और मुँहपत्ती आदि उपकरणों को रागद्वेषरहित भावना से यतनापूर्वक ग्रहण करने का निर्देश है। इसमें बताया गया है कि आजीवन इस प्रकार के योग से चलने वाला साधक आज्ञा का आराधक होता है । २. दूसरे अध्ययन में दूसरे धर्मद्वार सत्य की इहलोक और परलोक में उभयत्र महिमा बताते हुए कहा गया हैं कि सत्यवादी न समुद्र में डूबता है और न अग्नि में ही जलता है । पर्वतं से गिरा दिये जाने पर भी वह सुरक्षित ही रहता है क्योंकि पुण्ययोग से देव भी उसकी रक्षा करते हैं । सत्य भगवान् का तीर्थंकरों ने भी कथन किया है । दश प्रकार का सत्य देव, दानव और मानवों का वन्दनीय और पूजनीय है । दूसरे की निन्दा, प्रात्मप्रशंसा एवं अपवादपूर्ण भाषरण को सत्य में सम्मिलित नहीं किया गया है। हिंसाकारी सत्य भी श्रवाच्य बतलाया गया है। सत्यवादी मुनि के लिए व्याकरण का ज्ञान भी श्रावश्यक बताया गया है । नामसत्य, रूपसत्य एवं स्थापनासत्य जैसे भेदों को वास्तविकता नहीं होने पर भी व्यवहार में बोलचाल की दृष्टि से सत्य माना है । सत्यधर्म के रक्षणार्थ भी ५ भावनाएं बताई गई हैं। प्रथम भावना में बताया गया है कि संयमी हितमित-पथ्य वारणी विचार कर बोले । बिना विचारे नहीं बोले । क्रोधावेश में नहीं बोले । लोभवश झूठ बोला जाता है अतः लोभ का परित्याग कर संयत भाषा . बोले । रोग, व्याधि, जरा श्रादि से भयभीत होकर नहीं बोले । हास्य को भी झूठ का कारण बताते हुए इसमें कहा गया है कि पंचम भावना में हास्य से सदा बचता रहे । हास्य का प्रसंग उपस्थित हो जाने पर मौन रखे पर हास्य-वश किसी 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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