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________________ प्रश्नव्याकरण] केवलिकाल : मार्य सुधर्मा भी दशा में मृषा न बोले। इस प्रकार सदा सावधान रहकर बोलने वाला भाषा का पाराधक बताया गया है। ३. तीसरे अध्ययन में दत्तादान अर्थात् अचौर्य नामक तीसरे धर्मद्वार का वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया है कि पूर्ण संयमी साधक ही अचौर्यधर्म का सम्यकरूपेण अाराधन कर पाते हैं। अचौर्यव्रत का स्वरूप बताते हुए इसमें कहा गया है कि ग्राम, नगरादि में कोई वस्तु पड़ी हुई हो, कोई भूल गया हो तो उस वस्तु को नहीं लेना । खेत अथवा जंगल के फल, फूल, तृणादि भी खेत अथवा वन के स्वामी की बिना प्राज्ञा के तोड़ना अदत्तादान बताया गया है । इसमें संयमी के लिए यह आवश्यक बताया गया है कि वह पीठ, फलक, शय्या और वस्त्र, उपकरण आदि का सहधर्मियों में रामान रूप से विभाग करके उपयोग करे। अचौर्यव्रत का पाराधक उसे माना गया है जो बाल, दुर्बल, वृद्ध, तपस्वी और प्राचार्य आदि की बिना किसी प्रकार की अपेक्षा किये १० प्रकार की सेवा करता है एवं जो अप्रीतिकारक घर तथा उसके यहां के प्राहार, उपकरण आदि का सेवन नहीं करता और निषिद्ध प्राचरणों से सदा दूर रहता है। तीसरे अदत्तादान-विरमरण व्रत की रक्षा के लिए ५ भावनाएं बताई गई हैं, जो इस प्रकार हैं : स्त्री, पशु, पण्डकरहित निर्दोष वसति में वास करना (१), प्रतिदिन उस वसति में निवास के लिए प्राज्ञा प्राप्त करना तथा बिना प्राज्ञा के उसमें से किसी भी वस्तु को ग्रहण नहीं करना (२), पीठ, फलक प्रादि के लिए प्रारम्भ नहीं करना (३), साधारण पिण्ड की गवेषणा कर विधिपूर्वक आहार करना (४) और सहधर्मी के प्रति विनय प्रदर्शित करना (५) । ४. चौथे अध्ययन में चौथे धर्मद्वार ब्रह्मचर्य का वर्णन किया गया है। इसमें ब्रह्मचर्य को तप एवं संयम का मूल और सुगति का पथप्रदर्शक बताया गया है। इसे "ब्रह्मचर्य भगवान्" कह कर ३२ उपमाओं से उपमित किया गया है। इसमें ब्रह्मचर्य को देवेन्द्र-नरेन्द्रों से पूजित और सद्गुणों में मुकुट के समान श्रेष्ठ बताया गया है। ब्रह्मचारी के आहार, विहार एवं जीवनचर्या का वर्णन करने के पश्चात् इसमें इस व्रत की रक्षा के लिए आवश्यक ५ भावनामों का उल्लेख किया गया है। ब्रह्मचारी के लिए सादा वेश और सात्विक परिमित भोजन आवश्यक बताया गया है। १. पांचवें अध्ययन में पांचवें धर्मद्वार अपरिग्रह का निरूपण करते हए बताया गया है कि अपरिग्रही सब प्रकार के प्रारम्भ-समारम्भ और परिग्रहों से पूर्णरूपेण विरत और जिनप्रणीत भावों में शंका-कांक्षा रहित होता है। इसमें अपरिग्रह का संवर वृक्ष के रूप में वर्णन किया गया है। अपरिग्रही के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए इसमें बताया गया है कि अपरिग्रही थोड़ा अथवा बहुत, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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