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________________ १६४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रश्नव्याकरण सूक्ष्म अथवा स्शुल, सजीव अथवा निर्जीव - किसी प्रकार का द्रव्य ग्रहण नहीं करता । पूर्ण अपरिग्रही को दांत, शृंग, काच, पत्थर एवं चर्म आदि के पात्र प्रभृति तथा फल-फूल, कन्द-मूल आदि ग्रहण करने का इसमें निषेध किया गया है और यह बताया गया है कि अपरिग्रही साधक भोजन के लिए भी हिंसा नहीं करता। वह कारण से ही आहार को ग्रहण करता और कारणवशात् ही आहार का त्याग करता है। निष्परिग्रही साधक शरीर-रक्षा और धर्मसाधना के लिए जो वस्त्र, पात्रादि ग्रहण करता है वह भी आवश्यकतानुसार निर्ममत्व भाव से ही ग्रहण एवं धारण करता है। इसमें अपरिग्रही साधु को ३१ उपमाओं से उपमित किया गया है। __ अन्य व्रतों की तरह अपरिग्रह व्रत की भी पांच भावनाओं से सुरक्षा वताई गई है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का इतना विस्तृत और बहुमुखी विश्लेषण अन्य किसी शास्त्र में एकत्र उपलब्ध नहीं होता । हिंसा, मृषा, अदत्तादान, कुशील और परिग्रह - इन पांच पाश्रव-द्वारों तथा अहिंसा, सत्य प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांच संवर-द्वारों का सर्वांगपूर्ण बोध प्राप्त करने के लिए प्रश्नव्याकरण के इन दोनों श्रुतस्कन्धों का पठन-पाठन एवं मनन बड़ा ही उपयोगी है। विचारकों के लिए तो प्रश्नव्याकरण वस्तुतः एक महान् निधि के समान है। ११. विवागसुर्य विपाकसूत्र - यह ग्यारहवां अंग है। इसमें दो श्रुतस्कन्ध, २० अध्ययन, २० उद्देशनकाल, २० समुई शनकाल, संख्यात पद, संख्यात अक्षर व परिमित वाचनाएं, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढा छन्द, संख्यात श्लोक, संख्यात निरुक्तियां, संख्यात संग्रहरिणयां और संख्यात प्रतिपत्तियां हैं। वर्तमान में इसका स्वरूप १२१६ श्लोक-परिमारण है। विपाकसूत्र का मुख्य लक्ष्य कर्म के शुभाशुभ फल-विपाक को समझाना है । .. विपाक सूत्र के, दुःखविपाक और सुखविपाक ये दो विभाग हैं । कर्मसिद्धांत वस्तुतः जैनधर्म का एक प्रमुख और महत्वपूर्ण सिद्धान्त है। कर्म सिद्धान्त के उदाहरणों के लिए यह आगम अत्यन्त उपयोगी है । ___इसके पहले भाग दुःख विपाक में ऐसे १० व्यक्तियों का वर्णन है जिन्हें अशुभ कर्मानुसार अनेक कष्ट सहन करने पड़े और जो कष्ट से मुक्ति प्राप्त कर सके। पहले भाग के १० अध्ययनों में से प्रथम मृगापुत्र के अध्ययन में बताया गया है कि राष्ट्रकूट की तरह कठोर एवं क्रूर शासन करने वाले को मृगा लोढ़ा की तरह कैसा विकलांग और निन्द्य जीवन जीना पड़ता है । दूसरे अध्ययन में गो-मांस भक्षरण और मद्यपान के दुखद फलों को बताते हुए उज्झित कुमार का परिचय दिया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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