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________________ ६..नायाधम्मकहाओ] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा १४६ में अपने कर्मसमूह को जलाने लगे। प्रतिकूल, अन्तःप्रान्त और निस्सार प्राहार के कारण मूनि पुण्डरीक के शरीर में प्रबल व्याधि उत्पन्न हो गई पर वे संयम मार्ग में पूर्णरूपेण स्थिर रहे। मुनि पुण्डरीक ने जब देखा कि उनका शरीर असाध्य रोग से ग्रस्त होने के कारण उपचार की स्थिति में नहीं है तो उन्होंने सभी प्रकार के मोह-ममत्व का परित्याग कर स्थितप्रज्ञ हो आजीवन अनशन स्वीकार कर लिया और वे समाधिपूर्वक प्रायु पूर्ण कर सर्वार्थसिद्ध विमान में तेतीस सागर की स्थिति वाले देव के रूप में उत्पन्न हुए। ___इधर कुण्डरीक राज्यसिंहासन पर आरूढ़ होते ही स्वच्छन्द रूप से यथेप्सित भोगोपभोगों में निरन्तर पासक्त रहने लगा । विषयासक्ति और आहारादि के .असंयम के परिणामस्वरूप भीषण दाहज्वर की असह्य पीड़ा ने उसे धर दबाया। राज्य, राष्ट्र और अन्तःपुर के भोगों में मूच्छित बना हुमा वह रौद्रभाव में करालकाल का कवल बनकर सातवीं नरक में उत्पन्न हो योर दुःखों का भागी बना। इस प्रकार संयम लेकर पुनः भोगों में आसक्त होने वाला व्यक्ति कुण्डरीक की तरह घोर दुःखों का भागी बनता है, यह इस अध्ययन में बताया गया है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध के १० वर्गों में चमरेन्द्र, बलीन्द्र, धरणेन्द्र, पिशाचेन्द्र, महाकालेन्द्र, शक्र एवं ईशानेन्द्र की अग्रमहीषियों के रूप में उत्पन्न होने वाली साध्वियों की पुण्य कथाएं विविध अध्ययनों के रूप में दी गई हैं। दशों वर्गों में कूल २०६ अध्ययन हैं। इनमें वरिणत अधिकांश वृद्धकुमारियां भगवान पार्श्वनाथ के शासन में दीक्षित होकर उत्तरगुण की विराधना के कारण देवियों के रूप में उत्पन्न हुई बताई गई हैं। उन साधिकारों के देवियों के रूप में उत्पन्न होने पर भी उनका उन्हीं नामों से परिचय दिया गया है जो नाम उनके मानवभव में थे। इस अंग में उल्लिखित धर्मकथानों में पार्श्वनाथकालीन जनजीवन, विभिन्न मतमतान्तर, प्रचलित रीतिरस्म, नौका सम्बन्धी साधन सामग्री, कारागार पद्धति, राज्य व्यवस्था, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक परिस्थितियों आदि का बड़ा सजीव वर्णन किया गया है। ७. उवासगवसाम्रो उवासंगवसाम्रो- नामक सातवें अंग में नाम के अनुसार दश उपासक गहस्थों का वर्णन किया गया है। उनके अध्ययन भी दश हैं अतः शास्त्र का नाम उपासकदशा युक्तिसंगत है। इसमें १ श्रुतस्कन्ध, १० अध्ययन, १० उद्देशनकाल और १० ही समूद्देशनकाल कहे गये हैं। इसमें संख्यात हजार पद, संख्यात अक्षर, संख्यात निरुक्तियां, संख्यात संग्रहरिणयां, संख्यात प्रतिपत्तियां और संख्यात श्लोक बताये गए हैं। वर्तमान में इस पागम का परिमाण ८१२ श्लोक-प्रमाण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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