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________________ १४८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [६. नायाधम्मकहामो श्रमण को सहज बने अचित्त आहार के ग्रहण करने में रागरहित होकर अधिकाधिक साधना हेतु शरीर को बनाये रखने का ही लक्ष्य रखने की शिक्षा दी गई है। उन्नीसवें पुण्डरीक अध्ययन में भोगासक्ति का कटु फल बताते हुए विदेह क्षेत्र के पुण्डरीक और कुण्डरीक नामक दो राजकुमारों का उपाख्यान प्रस्तुत किया गया है। उसमें बताया गया है कि पुण्डरी किरणी नगरी के महाराज महापद्म जब संसार की नश्वरता को समझकर श्रमणधर्म में दीक्षित हो गये तब उनके ज्येष्ठ पुत्र पुण्डरीक राज्य का संचालन करने लगे और उनके छोटे भाई कुण्डरीक युवराज के रूप में सुखोपभोग करते रहे। _____ कालान्तर में मुनि महापद्म विचरण करते हुए पुण्डरीकिणी नगरी में पधारे, तब महाराज कुण्डरीक और उनके लघु भ्राता दर्शन-वन्दन आदि के लिये मुनि सेवा में पहुंचे। उपदेश श्रवण कर पुण्डरीक ने मुनि महापद्म की सेवा में श्रामण्य स्वीकार कर लिया। बहुत काल पश्चात् अनेक स्थानों में भ्रमण करते हुए कुण्डरीक मुनि पुनः उस नगर में आये । उस समय उनके शरीर में दाहज्वर का प्रकोप था। राजा ने उनकी मुनिधर्म के अनुकूल औषधोपचारादि की समुचित व्यवस्था कर दी। परिणामतः मुनि कुण्डरीक कुछ ही समय में पूर्णतः स्वस्थ हो गये। जब मुनि स्वस्थ हो जाने पर भी विहार के प्रति उपेक्षा एवं उदासीनता दिखलाने लगे तो राजा ने उन्हें समझा-बुझाकर विहार करवाया। अनिच्छा होते हुए भी मुनि ने विहार तो कर दिया पर उनका मन राज्य भोगों में विलुब्ध हो चुका था अतः कुछ ही काल के पश्चात् वे पुन: पुण्डरीकिरणी नगरी में लोटे और नगरी के बाहर एक उद्यान में विराजमान हुए। मुनि के आगमन की सूचना प्राप्त होते ही राजा उन्हें वन्दन-नमन करने हेतु उद्यान में पहुंचा और मुनि को चिंतित देखकर बोला - "महाराज! आप धन्य हैं, जो विषय-कषायों के प्रगाढ़ बन्धन काट कर संयमसाधना करते हुए विचरण कर रहे हैं। मै अधन्य है, जो अभी तक राज्य के प्रपंचों में उलझा हुआ है।" राजा द्वारा इस प्रकार की बात के पुनः पुनः दोहराये जाने पर भी मुनि ने जब उस पर कोई ध्यान नहीं दिया तो राजा ने मुनि से पूछा- महाराज ! आपको भोग से प्रयोजन है अथवा योग से ?" मुनि कुण्डरीक. ने दबे स्वर में कहा - "भोग से।" अनेक प्रकार से समझाने पर भी जब कुण्डरीक संयम-मार्ग में स्थिर नहीं हुए तो राजा पुण्डरीक ने अपने छत्र, चामरादि राजचिन्ह मुनि कुण्डरीक को देकर उसे राज्य सिंहासन पर आसीन किया और स्वयं शासनहित और वंश की प्रतिष्ठा को उज्ज्वल बनाये रखने हेतु राज्यवैभव का तृणवत् त्याग कर कुण्डरीक के धर्मोपकरण धारण कर संयम मार्ग में दीक्षित हो गये । मुनि पुण्डरीक विहार करते हुए स्थविरों के पास पहुंचे और उनसे चातुर्याम धर्म स्वीकार कर निरन्तर छह-छट्ठ तप करते हुए तप की जाज्वल्यमान ज्वाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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