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________________ ४८६ सारवेल के शि० का ले०] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य बलिस्सह हो जाता है कि यह शिलालेख्न खारवेल की मृत्यु के पचास वर्ष पश्चात् वीर नि० सं० ३७६, तदनुसार ई० पूर्व १४८ में लिखवाया गया। निम्नलिखित तथ्यों से इस बात की पुष्टि होती है : १. शिलालेख की १६वीं पंक्ति में लिखा है - "खेमराजा स वढराजा स भिखुराजा पसंतो अनुभवंतो कलाणानि" इस पंक्ति में खारवेल के लिये स शब्द का प्रयोग किया गया है, जो तत् शब्द का प्रथमा विभक्ति का एक वचन का रूप है। यह सर्वजनविदित है कि भाषाविज्ञान की दृष्टि से तत् शब्द का प्रयोग देश अथवा काल से अन्तरित - दूरदर्शी व्यक्ति के लिये ही किया जाता है। भिक्खुराय के लिये यह 'स' शब्द का प्रयोग इस बात का संकेत करता है कि यह शिलालेख भिक्खुराय की विद्यमानता में अथवा जीवनकाल में नहीं लिखवाया गया। यदि यह शिलालेख भिक्खुराय के जीवनकाल में लिखवाया गया होता तो निश्चित रूप से उनके लिये 'स' के स्थान पर 'एषः' शब्द का प्रयोग किया जाता। २. शिलालेख की १६वीं पंक्ति में ऊपर 'उद्धत किये गये वाक्य से पहले निम्नलिखित वाक्य दिया हुआ है : "मुरियकाले वोछिने च चोयठिसतिकंतरिये उपादयति । इस वाक्य की संस्कृत छाया होगी- “मौर्यकाले व्युत्छिन्ने च चतुष्पष्टिअग्रशतकांतरिते उत्पादयति ।" इसका सीधा-सा अर्थ होता है - मौर्यकाल की समाप्ति के पश्चात् अर्थात् मौर्य सं० १.६४ में उट्ट कित करवाया गया है। __ जैसा कि प्रमाणपुरस्कार सिद्ध किया जा चुका है मौर्यकाल वीर नि० सं० २१५ में प्रारम्भ होकर १०८ वर्ष पश्चात् वीर नि० सं० ३२३, तदनुसार ई० पूर्व २०४ में समाप्त हो गया था। इस प्रकार मौर्य सं० १६४ अंतिम मौर्य राजा वृहद्रथ की मृत्यु के ५६ वर्ष पश्चात् वीर नि० सं० ३७६ तदनुसार ई० पूर्व १४८ में माता है। ऊपर यह बताया जा चुका है कि भिक्खुराय खारवेल का सत्ताकाल वीर नि० सं० ३१६ से ३२६ तदनुसार २११ से १९८ ई० पूर्व तक रहा। शिलालेख की १६वीं पंक्ति के उपर्युल्लिखित वाक्य को श्री के. पी. जायसवालजी ने निम्नलिखित रूप में पढ़ा है - "मुरियकालवोछिनं च चोयठि-अंग-सतिकं तुरियं उपादयति ।" उन्होंने इसका अर्थ किया है - "मौर्यकाल में नष्ट हुए ६४ अध्याय वाले "अंगसप्तिक" के चौथे भाग को संकलित करवाया। किन्तु उपरोक्त पंक्ति में वैडूर्य के स्तंभों के प्रतिस्थापित किये जाने के उल्लेख के साथ-साथ 'उपादयति' का पाठ स्पष्टतः यही प्रकट करता है कि प्रमुक समय में हाथीगुंफा के इस लेख को उत्कीर्ण करवाया गया। यदि अंगशास्त्रों अथवा अंगतुल्य किसी ग्रन्थ के उद्धार का उल्लेख इस पंक्ति के द्वारा अभिहित होता तो निश्चित रूप से स्तंभ आदि की प्रतिष्ठापना की तुलना में इस महान् कार्य को अत्यधिक महत्व दिया जाकर उल्लेख में प्राथमिकता दी जाती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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