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________________ जैन शासन में सं० भेद] सामान्य पूर्वधर-काल : प्रार्य रेवती नक्षत्र भावसंग्रह के रचनाकार देवसेनसूरि ने लिखा है - "विक्रमादित्य की मृत्यु के १३६ वर्ष पश्चात् सौराष्ट्र की वल्लभी नगरी में श्वेतपट-श्वेताम्बर संघ की उत्पत्ति हुई।'' देवसेन सूरि ने इस सम्बन्ध में विशेष परिचय देते हए लिखा है- "विक्रम की दूसरी शताब्दी में निमित्त ज्ञानी भद्रबाह ने अपने श्रमसंघ से कहा कि निकट समय में ही १२ वर्ष का दुभिक्ष होने वाला है अतः आप लोग अपने संघ के साथ देशान्तर में चले जायं । सभी गणधर भद्रबाह के वचनानुसार अपने-अपने साधु.. समुदाय को लेकर दक्षिण की ओर विहार कर गये पर शान्ति नाम के एक प्राचार्य ने अपने बहुत से शिष्यों के साथ सौराष्ट्र प्रदेश की वल्लभी नगरी की ओर प्रस्थान किया, जहां उन्हें भयंकर दुष्काल का सामना करना पड़ा। वल्लभी में घोर दुष्काल के कारण ऐसी बीभत्स स्थिति उत्पन्न हो गई कि क्षुधातुर रंक लोग दूसरों के पेट चीर-चीर कर उसमें से सद्यःभुक्त अन्न निकाल कर अपनी भूख की ज्वाला मिटाने लगे। तत्कालीन भयङ्कर स्थिति से विवश होकर प्राचार्य शान्ति के साधु दण्ड, कम्बल, पात्र और आवरण हेतु वस्त्र धारण करने लगे। वे वसतियों में इच्छानुसार जाकर और वहां गृहस्थों के घर बैठ कर भोजन करने लगे। जब दुष्काल समाप्त हुआ तो प्राचार्य शान्ति ने संघ के सभी साधुओं को सम्बोधित कर कहा- "अब सुभिक्ष हो गया है अतः इस हीन प्राचार को छोड़ दो और दुष्कर्म की आलोचना कर सच्चे श्रमणधर्म को ग्रहण करो।" - इस पर.उनके शिष्यों ने कहा- "उस प्रकार के कठोर प्राचार आज कौन पाल सकता है? इस समय हम लोगों ने जो मार्म ग्रहण किया है, वस्तुतः यह सुखकर है अतः इसको छोड़ना हमारे लिए सम्भव नहीं।" __ जब प्राचार्य शांति ने अधिक कहा तो उनके मुख्य शिष्य ने उनके सिर पर डण्डे से भरपूर प्रहार किया। उससे प्राचार्य शान्ति की तत्काल मृत्यु हो गई और वे व्यन्तर रूप से उत्पन्न हुए।"२ . भावसंग्रह में प्राचार्य देवसेन ने शान्त्याचार्य के शिष्य जिनचन्द्र से ही श्वेतपट्ट संघ की उत्पत्ति बताई है। - रत्ननन्दी के "भद्रबाहु चरित्र" में और हरिषेण के "वृहत्कथाकोष" में भी थोड़े-बहुत हेर-फेर के साथ श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति का कुछ इसी प्रकार का उल्लेख मिलता है। वहां स्थूलाचार्य और स्थूलभद्र के साधु से श्वेताम्बर मत के प्रचलित होने की बात कही गई है। ___वृहत्कथाकोष में बताया गया है कि दुर्भिक्ष के समय श्रुतकेवली भद्रबाहु की प्राशानुसार कुछ साधु विशाखाचार्य के साथ दक्षिण के पुन्नाट प्रदेश में चले गये ' छत्तीसे वरिससए, विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । सोरठे उप्पण्णो सेवडो संघो हु वलहीए ।।१२।। - [भावसंग्रह] २ भावसंग्रह, गा० ५३ से ६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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