SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 476
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [भद्रबाहु दि. पर। नगण्य भेद के अतिरिक्त रयधू वरिणत चन्द्रगुप्ति द्वारा देखे गये १६ स्वप्न वही हैं जो दिगम्बर परम्परा के अन्य ग्रन्थों में मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के १६ स्वप्नों के नाम से उपलब्ध होते हैं।' इन सोलह स्वप्नों को देखने के पश्चात् चन्द्रगुप्ति की निन्द्रा भंग हुई। वे अद्भुत स्वप्नदर्शन से चिन्तातुर हुए । उन्हीं दिनों उस नगर में श्रुतकेवली भद्रबाहु का पधारना हमा। राजा चन्द्रगुप्ति ने भद्रबाह की सेवा में पहुंच कर उनके समक्ष अपने सोलह स्वप्न सुनाये और उनसे स्वप्नफल बताने की प्रार्थना की। भद्रबाहु से अपने स्वप्नों का फल सुनकर चन्द्रगुप्ति को विश्वास हो गया कि निकट भविष्य में सभी दृष्टियों से बड़ी गम्भीर और हीन स्थिति पैदा होने वाली है । चन्द्रगुप्ति को संसार से विरक्ति हो गई और उसने अपने पुत्र को राज्यभार सौंप कर भद्रवाहु के पास श्रमरणदीक्षा ग्रहण कर ली। . इसके पश्चात् रयधू ने भिक्षार्थ म्रमण करते हुए भद्रबाहुस्वामी द्वारा एक घरं में शिशु के मुख से 'जा, जा' शब्द सुनना, उनके द्वारा उस शिशु से पूछना कि कितने वर्ष के लिये, शिशु द्वारा उत्तर देना कि १२ वर्ष के लिये, भद्रबाहु द्वारा भावी द्वादशवार्षिक काल के सम्बन्ध में श्रमण संघ को सूचित करना, श्रावकों की प्रार्थना पर भी भद्रबाह का न रुकना तथा स्थूलभद्र, रामिल्ल, और स्थलाचार्य का अपने-अपने श्रमण संघ सहित उज्जयिनी में ही रहना, भद्रबाहु का बारह हजार तेण जि सणयरहु, लेहु जु पेरिउ, सालिकूरुमति देविन दूसिउ । उज्झायहो णंदणु पादेव्यउ, प्रयरें एहु वयणु महु किव्वउ । तं जि लेहु वंचिउ विवरेरउ, रणयजुयलु हरियउ सुयकेरउ । परि जित्ति विजापहु पाउ घरि, पुत्त णिजि विगय एयणे । बहु मोउ पउंजिवि तेण तहिं, विहिउ सुयही पुणु परिणयणु || रगामें चंदगुत्ति तहो णंदणु संजायउ सज्जण पाणंदणु । पोडत्तणि सो राजि परिट्ठिउ, रिणयपउ पालरिण सो उक्कंठिउ । जिणधम्मामय तित्तिउ प्रछइ, मुरिगणाहं रिणरुदाणु पयछइ । अण्णहि दिणि वि रयणि सुपसुत्तई, सिविणई दिट्ठई सोलहमत्तई । [रयघू कृत महावीर चरित् (अप्रकाशित ] दिट्ठउ प्रत्यंग दिवसेसरु, साहामंग कप्परुक्खहु परु । उंतु विमाण ‘वि याहुरि जंतउ, अहि बारहफण फुफूवंतउ । ससिमंडलहु मेउ तहं दिट्ठ उ, हस्थि किण्ह जुज्झंत प्रहिउ । खज्जोउ वि दिट्ठउ पहवंतउ, मज्झि सुक्क सरवरु वि महंतउ । धूम हु पूरे गयणु वि छण्णउं, वणयरगणु विड्ढरिहि णिसण्णउं । करणय थालि वायसु मुंजंतउ, सारगरिण हालिय तेय फुरंत । कारकर खंधारूढा वाणर, दिट्ठ कयार मज्जि कमलयंवर । मज्जा यंचतउ पुणु सायरु, बाल वसह घुरजोत्तिय रहवर । तरुण वसह प्रारूढा खत्तिय दिट्ठा तेण प्रतुल बलसत्तिय । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy