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________________ श्रुतकेवली - काल : प्राचार्य सय्यं भवस्वामी दशवेकालिक की रचना मरणक ने दीक्षित होकर जब प्राचार्य सय्यंभव को श्रात्मसमर्पण कर दिया तो वे मांक के प्रात्मकल्याण की दिशा में विचार करने लगे । श्रुतज्ञान में उपयोग लगा कर उन्होंने देखा कि इस बालर्षि की प्रायु केवल ६ मास की ही प्रवशिष्ट रह गई है । इस प्रति स्वल्प काल में बालक मुनि ज्ञान श्रीरक्रिया, दोनों ही का सम्यक्रूपेण आराधन कर के किस प्रकार अपना श्रात्मकल्याण साध सकता है इस पर चिन्तन करते हुए प्राचार्य सय्यंभव को ध्यान प्राया कि "चतुर्दश पूर्वो का पारगामी विद्वान् मुनि या १० पूर्वघर कभी विशेष कारण के उपस्थित होने की दशा में स्व-पर कल्याण की कामना से पूर्व श्रुत में से प्रावश्यक ज्ञान का उद्धार कर सकते हैं। बालक मुनि मरणक का प्रल्प समय में प्रात्मकल्याण सम्पन्न करने के लिये मेरे समक्ष भी यह कारण है इसलिये मुझे भी पूर्वो में से सार ग्रहण कर एक सूत्र की रचना करनी चाहिये।" ३१६ यह निश्चय कर प्राचार्य सय्यंभव ने विभिन्न पूर्वो से सार ले कर दश प्रध्ययनों वाले एक सूत्र की रचना की। सायंकाल के विकाल में पूर्ण किये जाने के कारण उस सूत्र का नाम दशवैकालिक रखा गया। प्राचार्य सय्यंभव ने स्वयं मरणक मुनि को उसका अध्ययन श्रौर ध्यानादि का अभ्यास कराया। मुनि मरणक अपनी विनयशीलता, श्राज्ञा- पालकता और ज्ञानरुचि के कारण प्राचार्यश्री की कृपा से अल्प समय में ही ज्ञान प्रौर क्रिया का सम्यक् श्राराधक बन गया । प्राचार्य सय्यंभव ने जब मरणक मुनि का अंतिम समय सन्निकट देखा, तो उन्होंने उसकी अन्तिम प्राराधना के लिये प्रालोचनादि श्रावश्यक क्रियाएं सम्यक् रीति से सम्पन्न करवाईं। मरणक मुनि ने भी ६ मास के प्रत्यल्प काल के निर्मल श्रमधर्म की प्राराधना के पश्चात् समाधिपूर्वक प्रायु पूर्ण कर स्वर्गगति प्राप्त की । मरणक मुनि के इस स्वल्पकालीन साधना के पश्चात् सहसा देहत्याग पर प्राचार्य सत्यभव को सहज ही मानसिक खेद हुआ और उनके नेत्रों से हठात् प्रश्रुकरण निकल पड़े। जब यशोभद्र आदि मुनिमण्डल ने वालमुनि मरणक की देहलीला - समाप्ति के साथ प्राचार्य सय्यंभव के मुखकमल को म्लान श्रौर उनके नयनों में दु को देखा, तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने विनयपूर्वक अपने गुरुदेव से पूछा - "भगवन् ! हमने प्राज तक कभी आपके मुखकमल पर किंचितमात्र भी खिन्नता नहीं देखी पर आज सहसा श्रापके नयनों में प्रश्रु भर आने का क्या कारण है ? प्राप जैसे परमविरांगी एवं शोकमुक्त महामुनि के मन में खेद होने का कोई खास कारण होना चाहिये । कृपया हमारी शंका दूर करने का कष्ट करें।" मुनिसंघ की बात सुन कर श्राचार्य सय्यंभव ने मरणक मुनि और प्रपने बीच के पिता-पुत्र रूप सम्बन्ध का रहस्य प्रकट करते हुए बताया- "इस बालमुनि ने इतनी छोटी वय में सम्यक्ज्ञान के साथ निर्मल चारित्र का पालन किया और साधना के मध्य में ही वह परलोकगमन कर गया, इसलिये मेरा हृदय भर प्राया । होता, यह कुछ प्रायु बल पा कर साधना को पूर्ण कर पाता ।" For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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