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________________ ३२० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग प्राचार्य के मुख से यह जान कर कि बालक मुनि मणक उनके गुरु का पुत्र था, मुनिमण्डल को वड़ा पश्चात्ताप हया और उन्होंने कहा - "भगवन् ! प्रापने इतने समय तक हमें इस बात से अज्ञात रखा कि पापका और बालक मुनि मरणक का परस्पर पिता-पुत्र का सम्बन्ध था। यदि हमें समय पर इस सम्बन्ध का पता चल जाता, तो हम लोग भी अपने गुरुपुत्र की सेवा का कुछ न कुछ लाभ अवश्य उठाते।" प्राचार्य सय्यंभव ने कहा- "मुनियो ! यदि आप लोगों को बालमुनि का मेरे साथ पुत्ररूप सम्बन्ध ज्ञात हो जाता तो आप लोग मरणक ऋषि से सेवा नहीं करवाते और वह भी इस प्रकार प्रापके स्नेहपूर्ण व्यवहार के कारण ज्येष्ठ मुनियों की सेवा के महान लाभ से वंचित रह जाता। अतः आपको इस बात का मन में खेद नहीं करना चाहिये । बालमुनि की अल्पकालीन प्रायु को देख कर मैंने, ज्ञान और क्रिया का वह सम्यक् प्राराधन कर सके, इस हेतु पूर्व-श्रुत से सार निकाल कर एक छोटे सूत्र की रचना की। कार्य सम्पन्न हो जाने से अब मैं उस दशवकालिक सूत्र का पुनः पूर्वो में संवरण कर देना चाहता हूं।" प्राचार्य सय्यंभव की बात सुन कर यशोभद्र आदि मुनियों ने और संघ ने प्राचार्यश्री की सेवा में विनयपूर्वक प्रार्थना की - "पूज्य ! मणक मूनि के लिये मापने जिस शास्त्र की रचना की है, वह आज भी मन्दमती साधु-साध्वियों के लिये माचारमार्ग का ज्ञान-सम्पादन करने के लिये उपयोगी है और भविष्य में होने वाले अल्पबुद्धि साधु-साध्वी भी इसके द्वारा संयमधर्म का ज्ञान प्राप्त कर सरलता से साधना कर सकेंगे प्रतः कृपा कर आप इस सूत्र का पूओं में संवरण न कर इसे यथावत् रहने दें।" संघ द्वारा की गई प्रार्थना को स्वीकार कर आचार्य सय्यंभव ने "दशवैकालिक सूत्र" को यथावत् स्थिति में रहने दिया। सय्यंभवस्वामी के इस कृपाप्रसाद के फलस्वरूप प्राज भी साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ दशवैकालिक सूत्र से पूरा प्राध्यात्मिक लाभ उठा रहा है। दशवकालिक सूत्र के दश अध्ययन न केवल मुनियों के लिये अपितु प्रत्येक साधक के लिये प्रलौकिक ज्योतिर्मय प्रदीपस्तम्भ हैं। उन अध्ययनों में प्रतिपादित अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक विषयों का सार रूप में विवरण इस प्रकार है : १. दुमपुष्पक नामक प्रथम अध्ययन में अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म का स्वरूप पोर महत्त्व बताया गया है। वस्तुतः प्रार्य संस्कृति के मूल सिद्धान्तों को पांच गाथानों में सूत्र रूपेण ग्रथित कर समर्थ प्राचार्य सय्यंभव ने सागर को गागर में भर दिया है। २. श्रामण्यपूर्वक नामक द्वितीय अध्ययन में संयम से विचलित मन को स्थिर करने के अंतरंग एवं बहिरंग उपाय बताये गये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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