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________________ ४६८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [पांचवां निह्नव गंग नहीं किया जा सकता; उसी प्रकार समय भी काल का सबसे छोटा, सबसे सूक्ष्म भाग है, जिसका और कोई विभाग नहीं किया जा सकता । काल के इतने छोटे अन्तिम विभाग 'समय' में दो क्रियाएं अथवा दो उपयोगों के उत्पन्न होने की कोई गुंजायश ही नहीं रह जाती क्योंकि वह काल का ऐसा सूक्ष्म भाग है जिसके दो विभाग किये ही नहीं जा सकते । ऐसी स्थिति में एक समय के अन्दर दो क्रियाओं अथवा दो प्रकार के उपयोगों के उत्पन्न होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता । सूक्ष्म से सूक्ष्म तत्व को प्रत्यक्ष की तरह देखने वाले सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर भगवान् ने जो फरमाया है, वह पूर्णरूपेण सत्य है । उसमें तुम्हें शंका नहीं करनी चाहिये।" अपने गुरु के मुख से इस प्रकार के हृदयग्राही, तर्कसंगत सूक्ष्म विवेचन को सुनने के उपरान्त भी प्रणगार गंग ने अपना दुराग्रह नहीं छोड़ा, तो अन्ततोगत्वा उसे संघ से बहिष्कृत घोषित कर दिया गया । ____ संघ से बहिष्कृत किये जाने के पश्चात् गंग ने 'द्विक्रिय' नामक एक नया मत चलाया। यह मत थोड़े समय तक ही चल पाया था कि गंग को अपनी त्रुटि का अनुभव हो गया। उसने अपने गुरु के पास प्राकर क्षमा मांगी और प्रायश्चित्त लेकर पुनः संयममार्ग पर प्रारूढ़ हो गया। प्राचार्य सुहस्ता क बाद की सघ-व्यवस्था संध-व्यवस्था में प्राचार्य का बड़ा महत्वपूर्ण और सभी दृष्टियों से सर्वोपरि स्थान माना जाता रहा है । आर्य सुधर्मा से आर्य महागिरि एवं आर्य सुहस्ती तक लगभग ३०० वर्ष पर्यन्त जिनशासन का सम्यक् रूपेण संचालन संरक्षण प्राचार्यों ने ही किया। प्राचार्य के अतिरिक्त उपाध्याय, गणी, गणावच्छेदक, स्थविर, प्रवर्तक मादि पदों के भी शास्त्र में नाम उपलब्ध होते हैं। पर प्राचार्य, गणधर और पर-स्थविर के अतिरिक्त तीर्थकर काल से महागिरि तक के काल में किसी अन्य पद या उसके कार्य का उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता। जहां-तहां स्थविर का उल्लेख मिलता है। वे ही प्राचार्य के प्रमुख सहायक रूप से सवदीक्षितों को संयमधर्म की शिक्षा और शास्त्रवाचना प्रदान करते रहे। इसके लिये शास्त्रों में जगह-जगह उल्लेख मिलते हैं- 'येरारणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जई। संभव है स्थिर शील स्वभाव के कारण उपाध्याय के लिये स्थविर शब्द का भी प्रयोग किया गया हो । अपवा अधिकांश प्राचार्य ही अपने समाश्रित श्रमणवर्ग को प्राचारमार्ग में जोड़ने एवं स्थिर रखने के साथ-साथ श्रुतवाचना का कार्य भी सम्पन्न करते रहे हों और मारमार्थी मेधावी शिष्य एक बार कहने से ही सरलता के साथ मर्यादा में चलते रहे हों। इस कारण प्रवर्तक, उपाध्याय, गणी प्रादि पदों का प्रवकतः उल्लेख नहीं किया गया हो । स्थिति कुछ भी रही हो, उपलब्प उल्लेखों से तो यही प्रकट होता है कि हजारों साधुओं की संस्था Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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