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________________ कालकाचार्य (द्वितीय)] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य समुद्र की ओर बढ़ते हुए आर्य कालक ने मार्ग में भरौंच के राजा - अपने भानजे बलमित्र-भानुमित्र को भी साथ लिया और बलमित्र तथा शकों की संयुक्त सेनाओं ने उज्जयिनी पर प्रबल वेग से आक्रमण किया।' भीषण युद्ध के पश्चात उज्जयिनी की सेना बुरी तरह परास्त हई। गर्दभिल्ल की विद्या को निरर्थक कर दिया गया और उसको बन्दी बनाकर साध्वी सरस्वती को छुड़ा लिया गया। जिस शकराज के यहां आर्य कालक ठहरे थे, उसे उज्जयिनी के राज्य-सिंहासन पर बैठाया गया। उससे शक वंश प्रसिद्ध हुआ। इस प्रकार वीर निर्वाण संवत् ४६६ में उज्जयिनी पर कुछ काल के लिए शकों का शासन स्थापित हुआ। आर्य कालक के निर्देशानुसार गर्दभिल्ल को बन्दीगृह से छोड़ दिया गया। . प्रायं कालक ने संघ रक्षार्थ किये गये इस महा प्रारम्भजन्य पाप की समुचित प्रायश्चित्त द्वारा शुद्धी की और अपनी बहिन सरस्वती को भी पुनः दीक्षित कर संयम मार्ग में स्थापित किया। तप संयम की साधना करते हुए प्राचार्य कालक पुनः जिनशासन की सेवा में निरत हो गये। आपने सुदूर प्रदेशों में विचरण कर । (क) ......"ताहे जे गद्दहिल्लेनावमारिणया लाडरायाणो मष्णे य ते मिलिउं सम्वेहिं पि रोहिया उज्जेणी। [कहावली, २, २८५] (ख) निशीपचूरिण, १० उ०, भा० ३, पृ० ५६ निशीथचरिण, भा० ३, पृ. ५६ के उल्लेखानुसार गर्दभिल्ल ने गर्दभी विद्या की साधना कर रक्खी थी। उस विद्या के बल से वह अपने पापको अपराजेय समझता था। किसी भी शत्रु के आक्रमण की सूचना पाकर वह गर्दभी को एक उच्चतम अट्टालिका पर स्थापित कर स्वयं अष्टम तप पूर्वक उस विद्या की साधना करता। विद्या के सिद्ध होते ही गर्दभी बड़े उच्च स्वर में रेंकती। गर्दभी का प्रखर स्वर शत्रुनों का जो भी सैनिक अथवा हस्ती, अश्व प्रादि पशु सुनता, वही तत्काल मुंह से रक्त-वमन करता हुआ निश्चेष्ट हो पृथ्वी पर गिर पड़ता। आर्य कालक इस गुप्त रहस्य से परिचित थे अतः उन्होंने १०८ शब्दवेषी धनुर्धर योदामों को पहले से ही सनद रखा और गर्दभिल्ल द्वारा सिह की हुई गर्दभी ने बोलने के लिए ज्यों ही अपना मुंह खोला त्यों ही उन योताओं ने बाणों से उसका मुह भर दिया। परिणामतः गर्दभिल्ल की विद्या का प्रभाव नष्ट हो गया। -सम्पादक 3 (क) कालगज्जो समल्लीणो सो तत्य राया अधिवो। राया ठवितो, ताहे सगवंसो उप्पण्यो । - [निशीषणि, १० उ०]. (ख) सूरी जप्पासि ठिमो, पासी सो वंतिसामियो सेसा। ___तस्सेवगा य जाया, तमो पउत्तो म सगवंसो॥ [कालकाचार्य कथा, गा० ८०] एरिसे वि महारंभे कारणे विधीए सुदो प्रजयणा पच्चत्तियं, पुण करेति पच्छित्त। _ [निशीषण, उ• १०, भा० ३, पृ. ६०] ५. (क) भगिरिण पुणरवि संजमे ठविया..... [निशीयरिण, उ० १., भाग ३, पृ. ६०] (ख) भिल्ल निगृह्य सरस्वती मुमोच, मूलम्वेवेन शोधयित्वा पुनः श्रामण्ये स्थापयत् । [अभियान राजेन, भा० ३, पृ. ४६०] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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