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________________ रहस्यपूर्ण चमत्कार ] दशपूर्वधर काल : श्रार्यं स्थूलभद्र ३८६ मुखमुद्रा से प्रतीत हो रहा है कि तुमने उस धूर्त की धूर्तता का पूरा रहस्य जान लिया है । तुम्हारे हाथ में वही स्वर्ण मुद्राओं से भरी थैली है ? अब और कोई थैली उस यंत्र में नहीं है ?" "मन्त्रीश्वर का अनुमान शतप्रतिशत ठीक निकला । यह है वह १०८ स्वर्णमुद्रात्रों से भरी थैली, जो वररुचि को कल प्रातःकाल गंगामाता के हाथ से नहीं अपितु मगध के महाप्रतापी महामात्य के हाथ से ही प्राप्त हो सकेगी। मैंने समीचीन रूप से देख लिया है कि अब उस यन्त्र में और कोई थैली नहीं है ।" उस थैली को अपने आसन के पास रखने का संकेत करते हुए शकटार ने " बहुत सुन्दर" इन दो शब्दों से अपने अधिकारी का उत्साह बढ़ाने के पश्चात् कहा - "सौम्य अब तुम विश्राम करो। अपने चरों को नियुक्त कर उस स्थान पर कड़ी दृष्टि रखना । " महामात्य को अभिवादन करने के पश्चात् गुप्तचर विभाग का अधिकारी वहां से चला गया । रहस्योद्घाटन दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व ही विशाल जनसमूह गंगा के तट पर एकत्रित हो गया । यथासमय मगधेश्वर महाराज नन्द अपने महामात्य एवं अन्य अधिकारियों के साथ गंगातट पर पहुंचे । वररुचि ने गंगा में स्नान करने के पश्चात् उच्च एवं मधुर स्वर में गंगा की स्तुति करना प्रारम्भ किया । स्तुतिपाठ के अनन्तर वररुचि ने प्रतिदिन की भांति यन्त्र पर पैर रखकर दबाया । सहसा गंगा की धारा में से एक हाथ ऊपर उठा पर वह हाथ पूर्णतः रिक्त था । उसमें स्वर्णमुद्राओं से भरी थैली नहीं थी । वररुचि ने गंगा में डुबकी लगाकर पानी में उस स्वर्णमुद्रापूर्ण थैली को इधर-उधर बहुत ढूंढा पर उसका सारा प्रयास व्यर्थ गया । अन्ततोगत्वा वह आकस्मिक अनभ्रवज्रपात से प्रताड़ित की तरह अधोमुख किये हुए चुपचाप खड़ा हो गया । वररुचि के पास पहुंच कर महामात्य शकटार ने घनगम्भीर स्वर में उसे सम्बोधित करते हुए कहा - " वररुचे ! क्या यह गंगा नदी तुम्हारे द्वारा धरोहर के रूप में इसके पास रखा हुआ द्रव्य भी तुम्हें नहीं लौटा रही है, जिससे कि तुम बार-बार उस द्रव्य को खोज रहे हो ? शोक न करो ब्रह्मन् ! महाराज नन्द के राज्य में कोई भी व्यक्ति अपने स्वत्व से वंचित नहीं किया जा सकता । यह लो तुम्हारी वह १०८ स्वर्णमुद्राओं से पूरित थैली जिसे तुमने रात्रि के समय गंगा के पास धरोहर ( अमानत ) के रूप में रखा था ।" यह कहते हुए महामात्य शकटार ने स्वर्णमुद्राओं से भरी थैली वररुचि के हाथ पर रख दी । वररुचि ने अनुभव किया कि विगत कतिपय दिनों से जो विशाल जनसमूह उसे गंगामाता का परमप्रीतिपात्र समझकर सम्मान की दृष्टि से देखता आ रहा था वह अब उसे महाधूर्ताविराज समझकर घृणा और For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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