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________________ अपरनाम लोहायं] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा हो सकते। इन्द्रभूति का प्रपरनाम लोहार्य हो इस प्रकार का उल्लेख दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्परा के किसी ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं होता जब कि आर्य सुधर्मा के लिये कषायपाहड़ तथा षट्खंडागम की टीकामों में एवं दिगम्बर परम्परा के अन्य ग्रन्थों में लोहार्य नाम का प्रयोग किया गया है। - दिगम्बर परम्परा में केवली द्वारा कवलाहार किया जाना मान्य नहीं प्रतः केवलज्ञान के पश्चात् भगवान् को पाहार देने वाले साधु का नाम लोहार्य था इस अभिमत की दिगम्बर परम्परा में तो कल्पना तक नहीं की जा सकती। पर श्वेताम्बर परम्परा में केवली द्वारा कवलाहार किया जाना मान्य है। ऐसी स्थिति में "प्रावश्यक मलयवृत्ति" में भगवान् को कैवल्यप्राप्ति के पश्चात् पाहार ला कर देने वाले, "खंतिखमो, पवरलोह सरिवन्नो" इन उत्कृष्ट विशेषणों से सम्बोधनीय साधु संभवतः मार्य सुधर्मा हो सकते हैं। तत्कालीन साधुनों में लोहज्ज (लोहार्य) नामक अन्य किसी साधु का श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। इन सब तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए अनुमान किया जा सकता है कि प्रार्य सुधर्मा का अपरनाम लोहार्य हो । श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य मागम में और यापनीय परम्परा (जो विलुप्त हो चुकी है) के "केवलिभक्ति"' नामक उपलब्ध ग्रन्थ में केवली द्वारा कवलाहार किया जाना मान्य है। भगवान् स्वयं भिक्षार्थ नहीं पधारते । ऐसी दशा में भगवान को प्राहार मा कर देने वाला कोई न कोई साधु अवश्य होना चाहिए। भगवान् को माहार ला कर देने के लिये कोई एक ही साधु नियत था अथवा विभिन्न इस सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। सीहा मरणगार ने मेढियाग्राम में रेवती गाथापत्नी के घर से बीजोरापाक ला कर दिया और उसके सेवन से भगवान् का रोग शान्त हुआ, इस प्रकार का उल्लेख भगवती सूत्र में उपलब्ध होता है। यह एक विशिष्ट परिस्थिति में घटित हुई घटना है । इससे यह निर्णय नहीं किया जा सकता कि भगवान् को आहार ला करे देने का कार्य किसी एक साधु के जिम्मे था या अनेक के। क्या प्रार्य सुधर्मा क्षत्रिय राजकुमार थे ? यद्यपि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों हो परम्परात्रों के मान्य ग्रन्थों में भगवान् महावीर के ग्यारहों गणधरों को ब्राह्मण जाति का बताया गया है किन्तु दिगम्बर परम्परा के वीर नामक कवि ने वि० सं० १०७६ में रचित अपने अपभ्रंश भाषा के महाकाव्य "जम्बूसामिचरिउ" में और कवि राजमल्ल ने वि० सं० १६३२ में रचित संस्कृत भाषा के अपने काव्य "जम्बूस्वामिचरितम्" में चौथे और पांचवें-दो गरा वरों के क्षत्रिय होने का उल्लेख करते हुए पांचवें गगाधर आर्य सुधर्मा को चौथे गणधर सुप्रतिष्ठ का पुत्र बताया है । ' केवलिमुक्ति, यापनीय प्राचार्य शाकटायन (पाल्यकोत्ति) रचित (विक्रम की ६ वी शताब्दी) २ भगवती सूत्र, शतक १५, सू० ५५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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