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________________ ७३० जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [काल नि० गं० भ्रान्ति वर्ष व्युच्छेद हो गया । इस प्रकार वीर निर्वाण के ६२ वर्ष पश्चात् भरत क्षेत्र से केवलज्ञान रूपी सूर्य अस्त हो गया । श्रार्य जम्बू के निर्वाण के पश्चात् सकल श्रुतज्ञान की परम्परा को धारण करने वाले ( द्वादशांग एवं चतुर्दश पूर्व-घर ) प्राचार्य विष्णु हुए । उनके पश्चात् चतुर्दश पूर्वज्ञान की अविच्छिन्न सन्तान परम्परा के रूप में क्रमश: नन्दि, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये सकल श्रुत ( द्वादशांगी) के धारक हुए। इन पांच श्रुतकेवलियों के काल का योग १०० रहा । भद्रबाहु के स्वर्ग गमनानन्तर भरत क्षेत्र से श्रुतज्ञान रूपी चन्द्र पूर्णावस्था में नहीं रहा और भरत क्षेत्र अज्ञानान्धकार से परिपूर्ण हुआ । भद्रबाहु के पश्चात् ११ अंगों तथा विद्यानुवाद पर्यन्त दृष्टिवाद अंग के धारक ( एकादशांग तथा दश पूर्वधर) विशाखायें हुए । विद्यानुवाद के प्रागे के ४ पूर्व, उनका एक देश अवशिष्ट रहने के कारण व्युच्छिन्न हो गये । इस विकलावस्था में श्रुतज्ञान विशाखाचार्य से क्रमश: प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिल, गंगदेव और धर्मसेन- इन प्राचार्यों की परम्परा से १८३ वर्ष तक रह कर व्युच्छिन्न हो गया । धर्मसेन के स्वर्गस्थ होने के साथ ही दृष्टिवाद रूपी प्रकाश के नष्ट हो जाने पर ११ अंगों एवं दृष्टिवाद के एक देश के धारक प्राचार्य नक्षत्र हुए । वह एकादशांग रूप श्रुतज्ञान जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन श्रौर कंस - इन (५) श्राचार्यों की परम्परा से २२० वर्ष पर्यन्त रहकर व्युच्छिन्न हो गया । कंसाचार्य के स्वर्गस्थ होने के अनन्तर ११ अंग रूप प्रकाश के व्युच्छिन्न हो जाने पर सुभद्राचार्य श्राचारांग के तथा शेष अंगों एवं पूर्वी के एक देश के धारक हुए। श्राचारांग भी सुभद्राचार्य से क्रमशः यशोभद्र यशोबाहु और लोहाचार्य की परम्परा से ११८ वर्ष रहकर व्युच्छिन्न हो गया । इस ( गौतम से लेकर अंतिम आचारांगधर लोहार्यं तक ) सब काल का योग ( ६२ + १०० + १८३+२२०+११८ =६८३) छह सौ तेरासी वर्ष होता है ।' धवलाकार ने आगे चलकर स्पष्ट शब्दों में कहा है- "लोहाइरिये सग्गलोगंगदे प्रायार दिवायरो प्रत्थमिनो । एवं बारससु दिरणयरेसु भरहखेतम्मि प्रत्थमिसु सेसाइरिया सव्वेसिमंगपुव्वाणमेगदेसभूद पेज्जदोस-महाकम्मपडिपाहुडादीरणं धारया जादा ।" अर्थात् लोहार्य के स्वर्गस्थ होने पर प्राचारांग रूपी सूर्य अस्त हो गया । इस प्रकार भरत क्षेत्र से १२ सूर्यो के प्रस्त हो जाने पर शेष प्राचार्य सब अंगों तथा पूर्वो के एकदेशभूत 'पेज्जदोस' प्रोर 'महाकम्मपयडिपाहुड' प्रादिकों के धारक हुए । १ महादिमहाबीरे लिम्बुदे संते केवलरणारणतारणहरो गोदम सामी जादो" 'सुभद्दाइरियो प्रायारंगस्स सेसंगपुम्वा रण मेग देसस्स य घारभो जादो । तदो मायारंगंवि जसद्द - जसबाहु-लोहाइरियपरंपराए अठ्ठारहोत्तरमरिससयमागंतूण बोच्छिणं । सव्वकाल समासो तेयासीदीए महियछस्सदमेत्तो ( षट्खण्डागम, वेदनाखण्ड, धवलाटीका युक्त, भाग ६, पृ० १३० - १३१ ) वही, पृ० १३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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