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________________ भद्रबाहु द्वितीय द्वारा प्रवन्ती में भावी द्वादशवार्षिक दुष्काल की भविष्यवाणी के पश्चात् उनके श्रमण संघ सहित दक्षिण में जाने का उल्लेख है न कि श्रुतकेवली भद्रबाहु का। यदि यह ऐतिहासिक महत्व की घटना श्रुतकेवली भद्रबाहु के जीवन से सम्बन्धित होती तो उस प्राचीन शिलालेख में इसका अवश्य उल्लेख होता। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, गहन अन्वेषण के पश्चात दिगम्बर परम्परा के आधुनिक इतिहास गवेषक भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि दक्षिण में प्रथम भद्रबाहु नहीं अपितु नैमित्तिक भद्रबाहु द्वितीय गये थे। हरिषेण, रत्ननन्दी आदि विद्वानों द्वारा उल्लिखित श्वेताम्बर-दिगम्बर सम्प्रदाय भेद की उत्पत्ति विषयक उपरिचचित विवरणों को ऐतिहासिक तथ्यों की कसौटी पर कसने के पश्चात वे केवल किंवदन्ती पर आधारित ही नहीं अपितु नितान्त काल्पनिक और तथ्यविहीन ही सिद्ध होते हैं । श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाहु तथा दशपूर्वधर प्राचार्य स्थूलभद्र के प्रकरण में भारत, यूनान और विश्व के इतिहास के परिप्रेक्ष्य में इस तथ्य को भली-भांति सिद्ध कर दिया गया है कि ईसा पूर्व ३२७ (वीर नि. सं. २००) में सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया। ईसा पूर्व ३२४ तक उत्तरी सीमावर्ती राजा एवं पंजाव के छोटे-छोटे गणराज्य सिकन्दर से लोहा लेते हुए उसको आगे बढ़ने से रोकते रहे । सिकन्दर के सर्वोच्च सेनानायकों तथा यूनानी राजदूत मेगस्थनीज द्वारा लिखे गये कतिपय महत्वपूर्ण तथ्यों के आधार पर ईसा पूर्व तथा ईसा की प्रथम, द्वितीय शताब्दी में यूरोपीय विद्वानों ने जो रचनाएं की, उनमें स्पष्ट उल्लेख किया है कि पोरस तथा चन्द्रगुप्त ने सिकन्दर को शक्तिशाली नन्द साम्राज्य पर आक्रमण करने के लिये प्रोत्साहित किया था। उन्होंने सिकन्दर को बताया कि गंगादिराई का राजा विल्कूल दुश्चरित्र शासक है, कोई उसका सम्मान नहीं करता आदि आदि । ईमा की दूसरी शताब्दी के विद्वान् जस्टिन ने अपनी रचना 'एपिटोम' (सारसंग्रह) में स्पष्ट लिखा है कि चन्द्रगुप्त ने भारतीयों में यूनानी शासन के विरुद्ध विद्रोह की ग्राग भड़काई । उसने लुटेरों का दल गठित किया और हाथी पर सवार हो वह यूनानियों से लड़ता रहा। इस प्रकार विदेशी निष्पक्ष साक्षियों से समथित केवल निर्विवाद ही नहीं अपितु सर्वसम्मत ऐतिहासिक तथ्य से यह अन्तिम रुप से मिद्ध हो जाता है कि ईसा पूर्व ३२७ से ३२४ (वीर नि० सं० २०० से २०३) तक चन्द्रगुप्त एक देशभक्त साधारण सैनिक के रूप में और नवम नन्द मगध के महाशक्तिशाली सम्राट् के रूप में विद्यमान था। सिकन्दर के पश्चाद्वर्ती यूनानी शामक सेल्यूकस और चन्द्रगुप्त के सम्बन्ध में किये गये यूनानी लेखकों के उल्लेखों के सन्दर्भ में चन्द्रगुप्त, चारणक्य और मगध सम्राट् नवम नन्द विपयक भारतीय ऐतिहासिक घटनामों पर विचार करने से यही निष्कर्ष निकलता है कि चाणक्य ने ईसा पूर्व ३१२ तदनुसार वीर नि० सं० २१५ में नन्द साम्राज्य का अन्त कर चन्द्रगुप्त मौर्य को पाटलिपुत्र के साम्राज्य का अधिपति बनाया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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