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आदि के साधुनों की भर्त्सना, स्थलाचार्य द्वारा अपने श्रमणों को विशुद्ध श्रमणाचार के पालन करने का परामर्श, क्रुद्ध साधुओं द्वारा स्थूलाचार्य की हत्या प्रादि । ___भट्टारक रत्ननन्दी से १३० वर्ष पूर्व हुए कवि रयधू (वीर नि. सं. १९६५) ने महावीर चरित् में चाणक्य द्वारा चन्द्रगुप्ति को राजराजेश्वर बनाये जाने, चन्द्रगप्ति के पुत्र विन्दुसार, पौत्र अशोक प्रपौत्र एउकु (कुरणाल) का वर्णन करते हुए सौतेली मां के षडयन्त्र द्वारा उसको अन्ध बना दिये जाने के उल्लेख के पश्चात् लिखा है कि अशोक ने अन्धे कुणाल के पुत्र चन्द्रगुप्ति को मौर्य साम्राज्य का अधिपति बनाया। कुणाल के पुत्र चन्द्रगुप्ति ने एक रात्रि में १६ स्वप्न देखे। भद्रवाहु से अपने स्वप्नों का दारुण फल सुनकर चन्द्रगुप्ति (सम्प्रति) ने विरक्त हो उनकी सेवा में निर्ग्रन्थ-श्रमरण दीक्षा ग्रहण कर ली।
रयधू ने इसके पश्चात् भद्रबाहु द्वारा दुष्काल की पूर्व-सूचना से लेकर सुभिक्ष के अनन्तर स्थलाचार्य प्रादि के श्रमणों द्वारा शिथिलाचार में प्रवृत्त रहने तक का शेष वर्णन रत्ननन्दी की तरह ही किया है। यहां यह उल्लेखनीय है कि हरिषेण, रत्ननन्दी आदि दिगम्वर परम्परा के प्राचार्यों ने जहां मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त को श्रुतकेवली भद्रबाहु का समकालीन बनाकर श्वेताम्बर दिगम्बर मतोत्पत्ति की घटना को वीर नि. सं. १६२ में घटित होना और प्राचार्य देवसेन ने चन्द्रगुप्ति, विशाखाचार्य वामिल्ल, स्थूलाचार्य, स्थूलभद्राचार्य आदि किसी का किसी प्रकार उल्लेख न करते हुए वीर नि. सं. ५६४ में विद्यमान भद्रबाहु नामक नैमित्तिक भद्रबाह के समय में सम्प्रदाय-भेद होना बताया है वहां रयधू ने मौर्यसम्राट सम्प्रति (कुणालपुत्र) को चन्द्रगुप्ति के नाम से अभिहित करते हुए उसके अन्तिम समय में वीर नि. सं. ३३० के आसपास इस सम्प्रदाय भेद की उत्पत्ति होना बताया है। इससे स्पष्ट है कि इस सम्प्रदाय भेद की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा के पास कोई सर्वसम्मत प्रामाणिक आधार नहीं था, जिसके फलस्वरूप जिसने जैसा सुना, जिसके सामने जैसी किंवदन्ती पाई उसने उसी को प्राधार माम कर उसमें अपनी ओर से दो चार नाम और कुछ नई बातें बढाकर लिख डाला । (दिगम्बर परम्परा में) यदि इस विषय में कोई ठोस प्रामाणिक प्राधार होता तो जितने मुंह उतनी बात' इस कहावत के अनुसार (दिगम्बर परम्परा के) विभिन्न ग्रंथों में इस प्रकार के आकाश-पाताल तुल्य अन्तर वाले परस्पर विरोधी उल्लेख कदापि नहीं किये जाते ।
दिगम्बर परम्परा के उपरिचित उल्लेखों से कौन से उल्लेख में कितनी सच्चाई है और कितनी कोरी कल्पना-यह निर्णय तो प्रत्येक उल्लेख को इतिहास की कसौटी पर कसने के अनन्तर ही किया जा सकता है। यह तो ऊपर बताया जा चुका है कि दिगम्बर परम्परा के सबसे प्राचीन शिलालेख (श्रवण बेलगोलपार्श्वनाथ वसति, जैन शिलालेख संग्रह, भाग १, लेख सं. १) में प्राचार्य सिद्धार्थ, धृतिषेण एवं बुद्धिल आदि के बहुत काल पश्चात् हुए नैमित्तिक प्राचार्य
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