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________________ अवन्ती में भावी बारह वर्षीय दुष्काल को सूचना श्रुतकेवली भद्रबाहु ने श्रमण संघ को देते हुए निर्देश दिया कि सब श्रमण उत्तरा पथ से दक्षिणापथ में लवण समुद्र के तटवर्ती प्रदेश की ओर विहार कर जायं। दुष्काल का हाल सुनकर मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त ने चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रवाहु के पास दीक्षा ग्रहण करली और १० पूर्वो का अध्ययन कर वे विशाखाचार्य के नाम से विख्यात हुए। उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर भद्रबाह वहीं रहे और विशाखाचार्य ने श्रमण संघ सहित दक्षिण की ओर विहार किया। वे दक्षिण के पुन्नाट प्रदेश में पहुंचे। रामिल्ल, स्थूलाचार्य एवं स्थूलभद्र ये तीनों अपने संघ के साथ सिन्धु प्रदेश में चले गये । प्राचार्य भद्रबाहु उज्जयिनी के अन्तर्गत भाद्रपद नामक स्थान पर अनशन कर एवं समाधिपूर्वक प्रायु पूर्ण कर स्वर्गस्थ हुए। विशाखाचार्य (चन्द्रगुप्त) अपने श्रमण समूह के साथ जिस प्रदेश में गये थे वहां सुभिक्ष रहा और वे विशुद्ध श्रमणाचार पालते रहे। सिन्धु प्रदेश में भीषण दुष्काल के कारण रामिल्ल, स्थूलाचार्य एवं स्थूलभद्र के श्रमरण दण्ड कम्बल पात्रादि धारण कर शिथिलाचारी बन गये। सुभिक्ष होने पर रामिल्ल, स्थूलवृद्ध और स्थूलभद्राचार्य इन तीनों ने निर्ग्रन्थ श्रमणाचार स्वीकार कर लिया पर हीन मनोबल वाले श्रमणों ने स्थविरकल्प परम्परा का प्रचलन किया। ___ भट्टारक रत्ननन्दी ने भी वीर निर्वाण सम्वत् २०६५ में रचित अपने भद्रबाह चरित्र नामक ग्रंथ में मुख्य रूप से हरिषेण का अनुसरण करते हुए निम्नलिखित कुछ बातें जोड़ी हैं : चन्द्रगुप्त के १६ स्वप्न, रामल्य, स्थूलाचार्य एवं स्थूलभद्र आदि साधुनों का अवन्ती से बिहार कर उज्जयिनी के उपवनों में ही रहना, भद्रबाहु का दक्षिण के लिये बिहार, पर एक विस्तीर्णवन में निमित्त ज्ञान से अपनी स्वल्पायु का बोध होने पर चन्द्रगुप्तिमुनि (राजा चन्द्रगुप्त) के साथ वहीं रुक जाना और विशाखाचार्य को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर समस्त श्रमणसंघ के साथ बाहर वर्ष पर्यन्त दक्षिणी प्रदेशों में विचरण करते रहने का निर्देश, चन्द्रगुप्ति और विशाखाचार्य को पृथक्-पृथक् दो मुनि बताना अर्थात् हरिषेण ने चन्द्रगुप्त के दीक्षित होने पर उसका नाम विशाखाचार्य रखे जाने का जो उल्लेख किया है उसका निराकरण कर चन्द्रगुप्त को चन्द्रगुप्ति मुनि बताना, चन्द्रगुप्ति मुनि को देवनिर्मित नगर में देवपिण्ड प्राप्त होते रहना, भद्रबाहु के स्वर्गगमन के अनन्त र उनके चरण-चिन्हों की सेवा, रामल्य, स्थूलाचार्य, स्थूलभद्रादि श्रमणों का वेष परिवर्तन और शिथिलाचार, सुभिक्ष हो जाने पर विशाखाचार्य का पुनः प्रवन्ती की ओर विहार, मार्ग में चन्द्रगुप्ति से मिलन, देवपिण्ड का सब श्रमणों द्वारा ग्रहण, रहस्योद्घाटन, प्रायश्चित, विशाखाचार्य का अवन्ती में प्रागमन, उनके द्वारा श्रमणाचार से विपरीत वेष और पाचरण धारण करने वाले रामल्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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