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________________ ५७४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रार्य क्य की प्रतिभा एवं सुन्दर विवेचन सुनकर आर्यसिंहगिरि हर्षविभोर हो गद्गद् हो उठे। परमानन्द की अनुभूति के साथ उनके हृदय में सहसा इस प्रकार के उद्गार उद्भूत हुए "धन्य है भगवान् महावीर का यह शासन, धन्य है यह गच्छ, जिसमें इस प्रकार . का अलौकिक शिशुमुनि विद्यमान है।" बालक-मुनि कहीं हतप्रभ अथवा लज्जित न हो जायं इस दृष्टि से आर्य सिंहगिरि ने उच्च स्वर से आगमनसूचक "निस्सिही-निस्सिही" शब्द का उच्चारण किया। अपने गुरु का स्वर पहिचानते ही वज्रमुनि को लज्जामिश्रित भय का अनुभव हुा । उन्होंने शीघ्रतापूर्वक साधुओं के विटणों को यथास्थान रखा और वे अधोमुख किये हुए गुरु के सम्मुख पहुंचे। आर्य वज्र ने सविनय वन्दन के पश्चात् अपने गुरु के पैरों का वस्त्र से प्रमार्जन कर साफ किया। अपने गुरु के स्नेहसुधासिक्त सस्मित दृष्टिनिक्षेप से वज्रमूनि ने समझ लिया कि उनका प्रच्छन्न कार्य गुरु से छुपा नहीं रहा है। आर्य सिंहगिरि ने रात्रि में अपने शिष्य वज्र मुनि की अद्भुत प्रतिभा पर विचार करते हुए मन ही मन सोचा कि वय में लघु पर ज्ञान में वृद्ध इस बालक मुनि की अपने से दीक्षा में ज्येष्ठ मुनियों की सेवा शुश्रूषा करने में जो अवज्ञा हो रही है, उसे भविष्य में नहीं होने दिया जाना चाहिये । सोच-विचार कर उन्होंने इसके लिए एक उपाय खोज निकाला। प्रातःकाल सिंहगिरि ने अपने शिष्यसमूह को एकत्रित कर कहा- "मैं आज यहां से विहार कर रहा है। शिक्षार्थी सब श्रमरण यहीं पर रहेंगे।" ___अंगशास्त्रों का अध्ययन करने वाले श्रमणों ने प्रति विनीत एवं जिज्ञासा भरे स्वर में पूछा - "भगवन् ! हमें शास्त्रों की वाचना कौन देंगे ?" आर्य सिंहगिरि ने शान्त, गम्भीर एवं दृढ़ स्वर में छोटा सा उत्तर दिया- "लघु मुनि वज्र।" यदि उस समय प्राज के समान दूषित वातावरण होता तो निश्चित रूपेण शिष्यों द्वारा गगनभेदी अट्टहास से गुरु की धज्जियां उड़ा दी जातीं पर वे विनयशील शिष्य गुरुवाक्य को ईश्वरवाक्य समझते थे। सहज मुद्रा में "यथाज्ञापयति देव" कह कर सब श्रमणों ने गुरु के आदेश को शिरोधार्य किया। तदनन्तर आसिंहगिरि ने कुछ स्थविर साधनों के साथ वहां से किसी अन्य स्थान के लिये विहार कर दिया। वाचना का समय होते ही साधुओं द्वारा एक पाट पर ववमुनि का प्रासन बिछाया जा कर उस पर वजमुनि को पासीन किया गया। सब साधु वचमुनि के प्रति उचित सम्मान प्रदर्शित कर अपने-अपने प्रासन पर बैठ गये। वज्रमुनि ने उन्हें शास्त्रों की वाचना देना प्रारम्भ किया। प्रत्येक सूत्र की, प्रत्येक गाथा की, समीचीन रूप से विस्तारपूर्वक व्याख्या करते हुए वषमुनि ने प्रागमों के निगूढ़ से निगूढ़ रहस्यों को इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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