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________________ १७. माचारोग ] . केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा प्रकार के विवादास्पद पाठ को देखकर और समवाय संख्या ५७ में "प्रायारचूलियावज्जाणं" इस पद के द्वारा पाचारांग के २५ अध्ययनों में से एक अध्ययन के चूलिकास्वरूप होने तथा प्राचारांग के अध्ययनों से पृथक रखने के संकेत से यह अनुमान लगा लिया गया कि निशीथ प्राचारांग की चूलिका के रूप में जब विद्यमान था उस समय आचारांग की पदसंख्या १८,००० थी और जब निशीथ को प्राचारांग से पृथक किया जाकर छेदसूत्र के रूप में उसकी प्रतिष्ठापना हो चुकी है तो उस दशा में स्वतः ही प्राचारांग की पदसंख्या १८,००० से कम हो गई। वस्तुतः प्राचारांग की ५ तो क्या एक भी ऐसी चूलिका नहीं थी जो याचारांग का अभिन्न अंग हो और उसके पदों की संख्या की गणना पाचारांग की पदसंख्या में सम्मिलित मानी गई हो। इस ओर न तो नियुक्तिकार का ही ध्यान गया और न वृत्तिकार, चूणिकार अथवा डॉ० हर्मन जैकोबी का ही। प्रसिद्ध जर्मन विद्वान हर्मन जैकोबी ने अपने इस अभिमत के समर्थन में जो युक्तियां दी हैं उनको देखने से स्पष्टतः यह प्रकट होता है कि वे नियुक्तिकार, वृत्तिकार तथा टीकाकार के विचारों से और विशेषतः आचारांग चूर्णिकार द्वारा प्रारम्भ में प्रस्तुत मंगल प्रकरण से अत्यधिक प्रभावित हुए हैं जिसमें चूर्णिकार ने प्रथम श्रुतस्कन्ध के"सुयं में पाउसं तेणं भगवया एवमक्खायं" इस प्रथम सूत्र को आदिमंगल तथा "से बेमि जे य अतीता अरहंता भगवंता" एवं “से बेमि से जहा विहरे"- इन मध्यवर्ती सूत्रों को मध्यमंगल और "अभिनिव्वूडे अमाई य" -प्रथम श्रुतस्कन्ध के इस अंतिम पद को अंत-मंगल बताते हुए केवल प्रथम श्रुतस्कन्ध को ही परिपूर्ण प्राचारांग मानने विषक अपना अभिमत व्यक्त किया है ! तथ्यों पर गहराई से विचार करने पर उपरोक्त सभी विद्वानों की मान्यता प्रमाण के स्थान पर केवल कल्पना पर आधारित नितान्त निराधार धारणा ही सिद्ध होती है। वस्तुतः आगमों के रचनाकाल में प्राचारांग की एक भी ऐसी चूला विद्यमान नहीं थी जिसे प्राचारांग का अभिन्न अंग मानकर उसके कलेवर की प्राचारांग के १८,००० पदपरिमारण में गणना की गई हो। इसका प्रबल प्रमाण आगम का मूल पाठ है। यह पहले बताया जा चुका है कि समवायांग और नन्दी सूत्र में जो द्वादशांगी का सर्वांगपूर्ण परिचय दिया है उसमें प्राचारांग का स्वरूपदो श्रुतस्कन्ध, २५ अध्ययन, ८५ उद्देशनकाल, ८५ समुद्देशनकाल और १८,००० पदयुक्त बताया गया है। उपरोक्त दो सूत्रों के अतिरिक्त अन्य किसी पागम में द्वादशांगी का इतना विस्तृत परिचय नहीं मिलता। ____ द्वादशांगी के इस परिचय में बारहवें अंग 'दृष्टिवाद' के तृतीय भेद 'पर्वगत' के १४ पूर्वो में से आदि के चार पूर्वो को छोड़ कर शेष किसी भी अंग की चलिकाओं का अस्तित्व नहीं बताया गया है। जहां द्वादशांगी के परिचय में . चत्तारि दुवालस, अट्ठ चेव दस चेव चूलवत्यूणि । पाइल्लाग चउण्हं, सेसारणं चूलिया नत्थि ।। [नन्दीमूत्र (द्वादशांगी प्रकरण)] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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