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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्राचारांगहै जिसमें नवब्रह्मचर्याध्ययनों में संक्षेपतः उल्लिखित तथ्यों का विशद व्याख्यात्मक विवेचन मात्र है। केवल यही नहीं उन्होंने अपनी मोर से यह मान्यता भी प्रकट की है कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध ५ चूलाओं में विभक्त है। इसकी पदसंख्या प्रथम श्रुतस्कन्ध से अधिक और अधिकतर है ।' - नियुक्तिकार प्रादि के आगमों से भिन्न इस अभिमत का अनुकरण करते हुए हरमन जैकोबी आदि प्राधुनिक विद्वान् विचारकों ने भी अपना यह मन्तव्य प्रकट किया है कि भाषा एवं शैली की दृष्टि से प्राचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध प्रति प्राचीन और द्वितीय श्रुतस्कन्ध उससे पश्चाद्वर्ती काल की रचना है।' पद-प्रमाण सम्बन्धी नियुक्ति की मान्यता को मूल पागम के उल्लेखों से बाधित तथा प्राधारविहीन सिद्ध करते हुए ऊपर यह सप्रमाण बताया जा चुका है कि आचारांग के दोनों श्रुतस्कन्धों का पदपरिमाण १८,००० पद है न कि केवल प्रथम श्रुतस्कन्ध का। आचारांग की पदसंख्या के प्रश्न को हल करने के प्रयास में ही नियुक्तिकार तथा वृत्तिकारों ने इसके द्वितीय श्रुतस्कन्ध को स्थविरकृत पंचचूलात्मक प्राचाराग्र माना। इस कारण ये दोनों प्रश्न परस्पर संपृक्त हैं अतः द्वितीय श्रुतस्कन्ध की मौलिकता के सम्बन्ध में विचार करने से पूर्व यह देखना परमावश्यक है कि यह पदसंख्या का प्रश्न किस कारण उत्पन्न हुआ। । एतद्विषयक सभी तथ्यों का समीचीनतया पर्यालोचन करने के पश्चात् ऐसा प्रतीत होता है कि निशीथ को आचारांग की पांचवीं चूला मानने और उसके पश्चात् उसे आचारांग से पृथक किया जाकर स्वतन्त्र छेदसूत्र के रूप में प्रतिष्ठापित किये जाने की मान्यता के कारण पदसंख्या विषयक मतभेद और उसके फलस्वरूप द्वितीय श्रुतस्कन्ध को प्राचारांग से भिन्न उसका परिशिष्ट अथवा प्राचाराग्र मानने की कल्पना का प्रादुर्भाव हुआ। समवायांग सूत्र की समवाय संख्या १८ में आये हुए "चूलिकासहित आचारांग भगवान् के १८,००० पद है।" इस उल्लेख के कारण अधिकांशतः जनमानस में यही धारणा बनी हुई थी कि चूलिका सहित प्राचाराग की पदसंख्या १८,००० है। समवायांग की समवाय संख्या २५ में प्राचारांग के २५ अध्ययनों के नाम दो गाथानों में गिना चुकने और गाथाओं की परिसमाप्ति के पश्चात् "निसीहज्झयणं पणवीस इम" - इस 'प्राचारांग नियुक्ति (प्रथम श्रु० स्कन्ध), गा० ११ तथा आचा० नि० (२ श्रृं० स्कंध), गा० २ से ७ 8. The Acharaoga Sutra contains two books, or Srutskandhas, very different from each other in style and in the manner in which the subject is treated. The subdivisions of the second book being called Chulas (चूलाज), or appendices, it follows that only the first book is really old.. The first book, then, is the oldest part of the Acbaranga Sutra; it is probably the old Acharanga itself to which other treatises have been added. [Sacred Book of the East, Vol. 22, Introduction; P. 47, - By Hermann Jacobi]. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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