SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६५ पाचारांग केवलिकाल : मार्य सुधर्मा प्राचारांग की ही तरह दो श्रुतस्कन्ध वाले अन्य भी पागम हैं पर उनके सम्बन्ध में प्रथम श्रतस्कन्ध से द्वितीय श्रतस्कन्ध की पथक पदसंख्या की इस प्रकार की मान्यता को कहीं नहीं अपनाया गया है। सूत्रकृतांग, ज्ञातृधर्मकथा, प्रश्नव्याकरण और विपाक-इन चारों अंगों के पदपरिमाण प्रत्येक के दोनों श्रुतस्कन्धों को मिला कर ही माने गये हैं। ऐसी स्थिति में केवल प्राचारांग के दोनों श्रतस्कंधों का पदपरिमारण पृथक-पृथक बताते हुए केवल प्रथम श्रुतस्कन्ध काही पदपरिमारण १८,००० पद किस कारण माना है, यह समझ में नहीं. पाता । इसका स्पष्टीकरण न नियुक्तिकार ने किया है, न चूरिणकार ने अथवा किसी वृत्तिकार ने और न इसका कोई प्राधार कहीं खोजने पर उपलब्ध ही होता है। दिगम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थ धवला और अंगपण्णत्ती में भी प्राचारांग की पदसंख्या १८,००० मानी गई है तथा उन ग्रन्थों में प्राचारांग के विषयों का जो परिचय दिया गया है वहः आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में प्रतिपादित विषयों से प्रायः पूरी तरह मिलता-जुलता है। इन सब तथ्यों पर गम्भीरता और निष्पक्षतापूर्वक विचार करने पर यही सिद्ध होता है कि आगमों के मूल पाठ में दो श्रुतस्कन्ध और २५ अध्ययनात्मक सम्पूर्ण प्राचारांग की जो १८,००० पदसंख्या बताई गई है वही पूर्णरूपेरण, सही, प्रामाणिक और मान्य हैं। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि आगम सर्वोपरि है और नियुक्तियों, चूणियों और टीकामों की तुलना में निश्चित रूप से सर्वतः सर्वाधिक प्रामाणिक भी। अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि नियुक्तिकार भद्रबाहु (द्वितीय) तथा टीकाकार आचार्य अभयदेव और चूर्णिकार जैसे प्रागमनिष्णात, एवं विद्वान् परमषियों ने आगम के उल्लेख से भिन्न इस प्रकार की मान्यता आखिरकार क्यों अभिव्यक्त की ? दयोंकि उन्होंने इसका कोई प्राधार या कारण अपनी रचनाओं में नहीं लिखा है इसलिये निश्चित रूप से तो कुछ भी नहीं कहा जा सकता किन्तु ऐसा अनुमान किया जाता है कि यह एक ऐसा जटिल प्रश्न है जो शताब्दियों से विचारकों के मस्तिष्क में अनेक प्रकार की कल्पनाओं और ऊहापोहों का जनक बना हुआ है। इस प्रश्न का समीचीनतया समाधान न हो पाने के कारण ही आगमिक इतिहासविदों के समक्ष अाज भी एक उलझन भरी ऐतिहासिक गुत्थी अनबुझी पहेली का रूप धारण किये उपस्थित है। वह जटिल ऐतिहासिक गुत्थी यह है कि - प्राचारांग के पदपरिमाण विषयक प्रश्न को हल करने के प्रयास में सर्वप्रथम नियुक्तिकार ने और तदनन्तर नियुक्तिकार का अनुसरण करते हुए चूरिणकार, टीकाकार और वृत्तिकार आदि ने बिना किसी प्रामाणिक आधार के अपनी एक ऐसी मान्यता अभिव्यक्त कर दी जो आगम के उल्लेखों से विपरीत है । नियुक्तिकार, वृत्तिकार आदि ने यह अभिमत व्यक्त किया है कि गणधर कृत प्राचारांग तो नवब्रह्मचर्याध्ययनात्मक ही है और केवल उसी का पदपरिमारण १८,००० पद है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध आचारांग नहीं अपितु स्थविरकृत आचाराग्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy