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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [शिक्षा कुशाग्रबुद्धि होने के कारण इन्द्रभूति स्वल्प समय में ही उपर्युक्त चौदह विद्याओं के परम पारंगत विद्वान् बन गये। . वेद-विद्या के प्राचार्य एवं उनके छात्र जन वाङ्मय के अनेक ग्रन्थों में इस प्रकार का उल्लेख उपलब्ध होता है कि इन्द्रभूति गौतम वेद-विद्या के एक प्रख्यात विद्वान् प्राचार्य थे और उनके पास ५०० छात्र अध्ययन करते थे। हमारे विचार से इनके प्राचार्य रूप से अध्यापनकाल का क्रम इस प्रकार हो सकता है कि लगभग २५ वर्ष की वय में अध्ययन पूर्ण करने के पश्चात् उन्होंने ५ वर्ष तक विभिन्न प्रदेशों में घूम कर वहाँ के विद्वानों को शास्त्रार्थ । में पराजित किया हो। जैसा कि टीकाकार ने गौतम के द्वारा कहलवाया है"मैंने तीनों जगत् के हजारों विद्वानों को वाद में पराजित किया है।" संभवतः इस प्रकार ख्याति प्राप्त कर लेने के पश्चात् वे वेद-वेदाङ्ग के प्राचार्य वने हों। उनकी विद्वत्ता की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल जाने के कारण यह सहज ही विश्वास किया जा सकता है कि सैकड़ों की संख्या में शिक्षार्थी उनके पास अध्ययनार्थ आये हों और यह संख्या उत्तरोत्तर वढ़ते-बढ़ते ५०० ही नहीं अपितु इससे कहीं अधिक बढ़ गई हो। इन्द्रभृति के अध्यापनकाल का प्रारम्भ उनकी ३० वर्ष की वय से भी माना जाय तो २० वर्ष के अध्यापनकाल की सुदीर्घ अवधि में अध्येता बहुत बड़ी संख्या में स्नातक वन कर निकल चुके होंगे और उनकी जगह नवीन छात्रों का प्रवेश भी अवश्यंभावी रहा होगा । ऐसी स्थिति में अध्येताओं की पूर्ण संख्या ५०० से अधिक होनी चाहिए। ५०० की संख्या केवल नियमित रूप से अध्ययन करने वाले छात्रों की दृष्टि से ही अधिक संगत प्रतीत होती है। गार्हस्थ्य जीवन आर्य सुधर्मा के विवाह का कुछ प्राचार्यों ने उल्लेख किया है, पर इन्द्रभति गौतम का विवाह हुभ्रा अथवा नहीं, यदि हुया तो कहां हुया, इस सम्बन्ध में सभी परम्पराएं मौन हैं। इन्द्रमति का ५० वर्ष की वय तक गहवास में रहना सभी को मान्य है किन्तु उस अवस्था तक ब्रह्मचारी रूप में रहे या गृहस्थ रूप में एतद्विषयक कोई स्पष्ट उल्लेख कहीं पर दृष्टिगोचर नहीं होता। नियुक्तिकार ने भी “सव्वे य माहणा जच्चा," इस गाथा के माध्यम से केवल इतना ही कहा है कि सब गणधर जाति से ब्राह्मण, सभी विद्वान् प्राध्यापक, सव द्वादशांगी के ज्ञाता और सभी चतुर्दश पूर्वधर थे। गवेपणाशील विद्वान् इस सम्बन्ध में प्रयत्न कर तथ्य प्रकट करें, यह इष्ट है। याजकाचार्य के रूप में कर्मकाण्ड एवं यज्ञ-यागादि त्रियानों के अनुष्ठान में प्रतिनिपात और वेदविद्या के पारंगत आचार्य इन्द्रभूति की यशोगाथा दशों दिशाओं में फैल चुकी १.चित्रं चैव त्रिजगति महस्रशो निजिने मया वादै । . [कल्प गुपोधिरा, श्लो. १५, पृ० ३८८] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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