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________________ प्रा० रन० के अनुसार ] श्रुतकेवली - काल : प्राचार्य श्री भद्रबाहु ३४६ कि उन्होंने उसी समय जैनधर्म अंगीकार कर लिया। महाराज पद्मधर ने वस्त्राभूषणादि से भद्रबाहु को सम्मानित किया और भद्रबाहु की कीर्ति दिग्दिगन्त में व्याप्त हो गई । कुछ ही समय पश्चात् भद्रबाहु ने अपने माता-पिता से प्राज्ञा प्राप्त कर गोवर्द्धनाचार्य के पास निर्ग्रन्थ-श्रमरणदीक्षा ग्रहण की । श्रमरोचित सभी प्राचारों का सम्यग्रूपेरण पालन करते हुए भद्रबाहु ने अपने गुरू गोवर्द्धनाचार्य के पास क्रमशः सभी अंग शास्त्रों का अध्ययन प्रारम्भ किया और वे गुरू के अनुग्रह से शीघ्र ही सम्पूर्ण द्वादशांगी के पारगामी चतुर्दश पूर्वधर विद्वान् बन गये । कालान्तर में गोवर्द्धनाचार्य ने अपना अन्तिम समय निकट समझ कर भद्रबाहु को अपने उत्तराधिकारी के रूप में प्रचार्य पद पर नियुक्त किया और घोर तपश्चरण करते हुए अन्त में चतुविध प्रहार का परित्याग कर समाधिपूर्वक स्वर्गमन किया | प्राचार्य पद पर आसीन होने के पश्चात् भद्रबाहु संघ का संचालन करते हुए विभिन्न क्षेत्रों में जैनधर्म का प्रचार एवं प्रसार करने लगे । उस समय धन-धान्यादिक से सम्पन्न श्रवन्ती राज्य में चन्द्रगुप्ति नामक राजा का राज्य था, जो उस राज्य की राजधानी उज्जयिनी में निवास करता था । महाराज चन्द्रगुप्ति ने एक समय रात्रि के पिछले प्रहर में बड़े प्राश्चर्यजनक १६ स्वप्न देखे । उन स्वप्नों का फल जानने की राजा के मन में तीव्र इच्छा उत्पन्न हुई । प्रातःकाल वनपाल ने राजा चन्द्रगुप्ति को सूचित किया कि नगर के बाहर राजकीय उपवन में प्राचार्य भद्रबाहु अपने १२,००० मुनियों के साथ पधारे हुए हैं। यह शुभसंवाद सुन कर राजा चन्द्रगुप्ति ग्रपने मन्त्रियों, सामन्तों, परिजनों और प्रतिष्ठित पौरजनों के साथ प्राचार्यश्री की सेवा में पहुंचा। दर्शन, वन्दन एवं उपदेशश्रवरण के पश्चात् चन्द्रगुप्ति ने प्राचार्य भद्रबाहु के समक्ष अपने सोलह स्वप्न सुनाते हुए उनसे उनका फल पूछा । श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाहु ने अपने ज्ञानबल से राजा चन्द्रगुप्ति के स्वप्नों का फल बताते हुए कहा- "राजन् ! ये स्वप्न भावी घोर अनिष्ट के सूचक हैं. जो इस प्रकार हैं : - (१) अस्तमान रविदर्शन का प्रथम स्वप्न इस बात का द्योतक है कि इस पंचम काल में द्वादशांगादि का श्रुतज्ञान न्यून हो जायगा । (२) दूसरे स्वप्न में कल्पवृक्ष की शाखा के भंग होने का फल यह है कि अब भविष्य में कोई राजा श्रमरणदीक्षा ग्रहरण नहीं करेगा । (३) तीसरे स्वप्न में चलनीतुल्य सछिद्र चन्द्र के दर्शन का फल यह हैं कि इस दुषमा नामक पंचम काल में जैन धर्म में से अनेक मतों का प्रादुर्भाव होगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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