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________________ द्वा. का ह्रास एवं विच्छेद] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा १८१ __ इस प्रकार द्वादशांगी में से पांच अङ्गों के विच्छेद के समय का उल्लेख तित्थोगाली में किया गया है। इस प्रकरण को पढ़ने के पश्चात् समीचीनतया विचार करने पर दो मुख्य प्रश्न उपस्थित होते हैं। पहला प्रश्न यह है कि इसमें जो अङ्गों के विच्छिन्न होने का उल्लेख किया गया है, वह वस्तुतः उस श्रुत के नष्ट होने के सम्बन्ध में उल्लेख है अथवा प्रधान सूत्रधर के नष्ट होने के सम्बन्ध में? दूसरा प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जिन-जिन अङ्गों के जिस-जिस समय में विच्छिन्न होने का उल्लेख किया गया है, वे अङ्ग-शास्त्र उस समय में पूर्णतः नष्ट हो गए अथवा अंशतः ? जहां तक पहले प्रश्न का सम्बन्ध है यह प्रश्न बड़े लम्बे समय से बहुचर्चित रहा है। व्यवहारभाष्य में भी इस प्रकार का उल्लेख है : "तित्थोगाली में अनुक्रम से यह विवरण दिया हुआ है कि किस-किस अंग का किस-किस समय में विच्छेद होगा।"' श्रुत-विच्छेद के सम्बन्ध में दो प्रकार के अभिमत रहे हैं, इस प्रकार का प्राभास नन्दीसूत्र की चूरिणं से स्पष्टतः प्रकट होता है। नन्दीसूत्र-थेरावली की ३२ वीं गाथा की व्याख्या में नन्दीचरिणकार ने इन दोनों प्रकार के मन्तव्यों का उल्लेख करते हुए लिखा है-"बारह वर्षीय भीषण दुष्काल के समय आहार हेतु इधर-उधर भ्रमण करते रहने के फलस्वरूप अध्ययन एवं पुनरावर्तन आदि के अभाव में श्रुतशास्त्र का ज्ञान नष्ट हो गया। पुनः सुभिक्ष होने पर स्कंदिलाचार्य के नेतृत्व में श्रमसंघ ने एकत्रित हो, जिस जिस सोधु को आगमों का जो जो अंश स्मरण था, उसे सुन-सुन कर सम्पूर्ण कालिक श्रत को सुव्यवस्थित एवं सुसंगठित किया। वह वाचना मथुरा नगरी में हुई इसलिए उसे माथुरी वाचना और स्कन्दिलाचार्य सम्मत थी अतः स्कंदिलीय अनुयोग के नाम से पुकारी जाती है। दूसरे (आचार्य) कहते हैं-सूत्र नष्ट नहीं हुए, उस दुर्भिक्षकाल में जो प्रधान-प्रधान अनुयोगधर (श्रुतधर) थे, उनका निधन हो गया। एक स्कन्दिलाचार्य बचे रहे। उन्होंने मथुरा में साधुनों को पुनः शास्त्रों की वाचना-शिक्षा दी, अतः उसे माधुरी वाचना और स्कन्दिलीय अनुयोग कहा जाता है।"२ नन्दी चूरिण में जो उक्त दो अभिमतों का उल्लेख किया गया है, उन दोनों प्रकार की मान्यताओं को यदि वास्तविकता की कसौटी पर कसा जाय तो वस्तुतः पहली मान्यता ही तथ्यपूर्ण और उचित ठहरती है। "सूत्र नष्ट नहीं हुए"- इस प्रकार की जो दूसरी मान्यता अभिव्यक्त की गई है वह तथ्यों पर प्राधारित प्रतीत नहीं होती। द्वादशांगी की प्रारम्भिक अवस्था के पद-परिमारण और वर्तमान में उपलब्ध इसके पाठ की तालिका इसका पर्याप्त पुष्ट प्रमाण है। इस सम्बन्ध में विशेष चर्चा की आवश्यकता नहीं क्योंकि वर्तमान में उपलब्ध द्वादशांगी का ,तित्थोगाली एत्वं, वत्तव्वा होई मारणुपुबीए । __जे तस्स उ अंगस्स, वुच्छेदो जहिं विणिहिट्ठो ॥ व्या. भा० १०,७०४ २ नंदीचरिण, पृ. ६ (पुण्यविजयजी म. द्वारा संपादित)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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