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________________ १८२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [दा. का ह्रास विच्छेद पाठ वल्लभी में हुई मन्तिम वाचना में देवद्धि क्षमाश्रमण आदि प्राचार्यों द्वारा बीर निर्वाण सं० १८० में निर्धारित किया गया था। इस अन्तिम प्रागम-वाचना से १५३ वर्ष पूर्व वीर नि० सं० ८२७ में, लगभग एक ही समय में दो विभिन्न स्थानों पर दो प्रागम-वाचनाएं, पहली प्रागम-वाचना आर्य स्कंदिल की अध्यक्षता में मथुरा में और दूसरी प्राचार्य नागार्जुन के नेतृत्व में, वल्लभी में हो चुकी थीं। उपरिवरिणत द्वितीय मान्यता के अनुसार द्वादशांगी का मूलस्वरूप ८२७ वर्षों तक यथावत् बना रहा हो और केवल १५३ वर्षों की अवधि में ही इतने स्वल्प परिमाण में अवशिष्ट रह गया हो, यह विचार करने पर स्वीकार करने योग्य प्रतीत नहीं होता। श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाह के जीवनकाल में वीर नि० सं० १६० के आसपास की अवधि में हुई प्रथम आगम-वाचना के समय द्वादशांगी का जितना ह्रास हुमा, उसे ध्यान में रखते हुए विचार किया जाय तो हमें इस कटु सत्य को स्वीकार करना होगा कि वी०नि० सं० ८२७ में हई स्कन्दिलीय और नागार्जुनीय.वाचनाओं के समय तक द्वादशांगी का प्रचुर मात्रा में ह्रास हो चुका था तथा एकादशांगी का प्राज जो परिमाण उपलब्ध है, उससे कोई बहत अधिक परिमाण स्कन्दिलीय और नागार्जुनीय वाचनात्रों के समय में नहीं रहा होगा। इन सब तथ्यों पर विचार करने के पश्चात् पहले प्रश्न का यही वास्तविक उत्तर प्रतीत होता है कि कालप्रभाव, प्राकृतिक प्रकोपों एवं अन्य प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण प्रमुख सूत्रधरों के स्वर्गगमन के साथ-साथ श्रुत का भी शनैः शनैः ह्रास होता गया। द्वादशांगी का कौन कौन सा अंग किस किस समय में विच्छिन्न.हा, इस सम्बन्ध में जो तित्थोगाली में विवरण दिया गया है, उसके अनुसार जिस अंग के जिस समय में विच्छिन्न होने का उल्लेख है, उस समय में वह अंग पूर्णतः लुप्त हो गया अथवा अंशतः ही लुप्त हुआ, इस दूसरे प्रश्न पर अब हमें विचार करना है। इस सन्दर्भ में हमें उन सब गाथानों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना होगा जो प्राचारांग के विच्छेद के विषय में ऊपर दी गई हैं। गाथा संख्या ८१६ में बताया गया है कि वी० नि० सं० २०,००० में आचारांग का विच्छेद हो जायगा। इसके पश्चात् गाथा सख्या ८१७ में बताया गया है कि दुःषमा नामक पंचम प्रारक का कुछ समय शेष रहने पर दुःप्रसह नामक प्राचार्य अंतिम आचारांगधर होंगे। उन दुःप्रसह प्राचार्य के निधन के साथ ही साथ चारित्र सहित आचारांग नष्ट हो जायगा। अंत में गाथा संख्या ८२० में बताया गया है कि प्राचारसूत्र के नष्ट हो जाने के पश्चात् श्रमणों का नाम तक अवशिष्ट नहीं रहेगा और लोग अंधकारपूर्ण तिमिस्र गुफा में रहेंगे। इन गाथानो पर गहन चिन्तन से यही निष्कर्ष निकलता है कि वी० नि० सं० २०००० में प्राचारांग के बहुत बड़े भाग का लोप हो जायगा किन्तु वह पूर्णतः विलुप्त नहीं होगा। अंशतः एवं अर्थतः आचारांग, आचारसूत्र के रूप में उक्त विलोप के पश्चात् भी १००० वर्ष तक विद्यमान रहेगा और वीर निर्वाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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