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________________ ६१८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [यापनीय संघ पर अपने पक्ष की पुष्टि में प्राचारांग, उत्तराध्ययन आदि श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य प्रागमों के उद्धरण प्रमाण के रूप में दिये हैं', इससे इस बात में किंचित्मात्र भी सन्देह नहीं रह जाता कि यापनीय संघ आचारांगादि आगमों को अपने प्रामाणिक धर्मग्रन्थ मानता था। यापनीयों की मान्यताओं के सम्बन्ध में दर्शनप्राभृत की टीका में श्रुतसागर ने लिखा है - "यापनीयास्तु वेसरा इव उभयं मन्यन्ते, रत्नत्रयं पूजयन्ति, कल्पं च वाचयन्ति, स्त्रीणां तद्भवे मोक्षं, केवलिजिनानां कवलाहारं परशासने सग्रन्थानां मोक्षं च कथयन्ति ।" षड्दर्शनसमुच्चय की टीका में गुणरत्न ने यापनीयों के सम्बन्ध में लिखा है - "यापनीय संघ के मुनि नग्न रहते हैं, मोर की पिच्छी रखते हैं, पाणितल भोजी हैं, नग्न मूर्तियों की पूजा करते हैं तथा वन्दना करने पर श्रावकों को 'धर्मलाभ' कहते हैं।" प्राचार्य हरिभद्र ने अपने ग्रन्थ ललितविस्तरा में यापनीयतन्त्र का एक उद्धरण दिया है। यद्यपि आज 'यापनीय-तन्त्र' कहीं उपलब्ध नहीं पर उस उद्धरण से ऐसा प्रतीत होता है कि आगमों के अतिरिक्त यापनीय संघ का एक ऐसा ग्रन्थ भी पूर्वकाल में विद्यमान था, जिसमें यापनीय संघ की मुख्य-मुख्य मान्यताओं को सहजसुबोध प्राकृत भाषा में संकलित किया गया था। वह उद्धरण इस प्रकार है :' (क) अथवं मन्यसे पूर्वागमेषु वस्त्रपात्रादिग्रहणमुपदिष्टं तत्कथं ? (ख) प्राचार प्रणिधो भणितं । - (ग) प्रतिलेखेत्पात्रकम्बलें ध्र वमिति प्रसत्सु पात्रादिषु कथं प्रतिलेखना ध्र वं क्रियते ? (घ) प्राचारस्यापि द्वितीयाध्ययनो लोक विचयोनाम, तस्य पंचमे उद्देशे एवमुक्तम् - "पडिलेहणं पादपुंछणं उग्गहं कदासणं अण्णदरं उवधि पावेज्ज । (ङ) वत्थेसणाए वृत्तं तत्थ एसे हिरिमणे सेगं वत्थं वा धारेज्ज, पडिलेहणं बिदियं । एत्थ एसे जुग्गिदे देसे दुवे वत्थाणि धारेज्ज पडिलेहणं तिदियं । एत्य एसे परिस्सहं अणधिहासस्स तगो वत्यारिण धारेज्ज पडिलेहणं चउत्थं । (च) पुनश्वोक्त तत्रव - "मालाबुपत्तं वा दारुगपत्तं वा मट्टिगपत्तं वा अप्पपारणं अप्पबीज अप्पसरिदं तहा अप्पाकारं पात्रलाभे सति पडिग्गहिसामीति" वस्त्रपात्रे यदि न ग्राह्य कथमेतानि सूत्राणि नीयन्ते ? (छ) परिसं चीवरधारी तेन परमचेलगो जिणो। (ज) ण कहेज धम्मकहं वत्थपत्तादिहेदुमिदि । (झ) कसिणाई वत्यकंबलाइं जो भिक्खु पडिग्गहिदि पज्जदि मासिगं लहगं इदि । (ब) द्वितीयमपि सूत्रं कारणमपेक्ष्य वस्त्रग्रहणमित्यस्य प्रसाधकं पाचारांगे विद्यते - "प्रह पुण एवं जाणेज्ज - पातिकते हेमंतेहिं सुपडिवण्णे से अथ पडिजुण्णमुवधि पदिट्ठावेज्ज।" [भगवती 'माराधना' की गाथा सं० ४२७ की अपराजित द्वारा रचित विजयोदया टीका] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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