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________________ ६४६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [गुप्त राजवंश श्री घटोत्कचगुप्त वस्तुतः महाराजा घटोत्कच का पश्चाद्वर्ती कुमारामात्य मात्र था न कि गुप्त राजाओं के वंशवृक्ष का महाराजा ।' गुप्त नृपति घटोत्कच के सम्बन्ध में उसके नामोल्लेख के अतिरिक्त और कोई परिचय उपलब्ध नहीं होता। २१ (२५) आर्य स्कन्दिल-वाचनाचार्य वाचक वंश परम्परा में आर्य स्कन्दिल बड़े प्रभावक और प्रतिभाशाली प्राचार्य हो गये हैं। उन्होंने अति विषम समय में श्रुतज्ञान की रक्षा कर जो शासन की सेवा की है, वह सदा जैन-इतिहास में स्वरिणम अक्षरों से लिखी जाती रहेगी। हिमवन्त स्थिविरावली के अनुसार प्रार्य स्कन्दिल का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है : "मथुरा के ब्राह्मण मेघरथ और ब्राह्मणी रूपसेना के यहां आपका जन्म हुआ। गर्भकाल में माता ने चन्द्र का स्वप्न देखा अतः पुत्र का नाम सोमरथ रखा गया । आपके माता-पिता प्रारम्भ से ही जैन धर्मावलम्बी थे। एक बार ब्रह्मद्वीपक आचार्य सिंह विहारक्रम से मथुरा पधारे। उनके धर्मोपदेश को सुनकर सोमरथ ने वैराग्य भाव से श्रमण-दीक्षा ग्रहण की। गुरु ने दीक्षा के समय आपका नाम स्कन्दिल रखा। मुनि स्कन्दिल ने अपने गुरु प्रार्य ब्रह्मद्वीपकसिंह की सेवा में निरत रहते हुए एकादशांगी एवं पूर्वो का ज्ञान प्राप्त किया। आर्य सिंह ने स्कन्दिल को सुयोग्य एवं प्रतिभाशाली समझकर अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। तदनुसार प्रार्य सिंह के स्वर्गगमन के पश्चात् प्रार्य स्कन्दिल को संघ द्वारा वाचनाचार्य पद पर नियुक्त किया गया।" कल्प स्थविरावली में प्रार्य संडिल्ल को काश्यप गोत्रीय प्रार्य धर्म का शिष्य बताया गया है। संडिल्ल और स्कन्दिल को एक मानकर कुछ लेखकों ने स्कंदिलाचार्य को काश्यप गोत्रीय आर्य सिंह के शिष्य प्रार्य धर्म का शिष्य बताया है, जबकि नन्दीसूत्र-स्थविरावली में उल्लिखित वाचक प्रार्य स्कन्दिल रेवतीनक्षत्र के शिष्य आर्य ब्रह्मद्वीपिकसिंह के अन्तेवासी माने गये हैं। हिमवन्त स्थविरावली में भी यही आर्य ब्रह्मद्वीपिक सिंह स्कन्दिलाचार्य के गुरु माने गये हैं। इन्हीं ब्रह्मद्वीपिकसिंह के मधुमित्र और प्रार्य स्कन्दिल नामक दो प्रमुख शिष्य थे। प्राचार्य परम्परागों को गहराई से देखने पर प्रतीत होता है कि आर्य सिंह नाम के अनेक प्राचार्य हुए हैं। पहले पार्यवज के गुरु सिंह गिरी। दूसरे प्रार्य धर्म के गुरु काश्यपगोत्रीय प्रार्य सिंह । इनके गुरु का नाम भी प्रार्य धर्म बताया गया है। तीसरे रेवती नक्षत्र के शिष्य पार्य ब्रह्मद्वीपिक सिंह । समान नाम वाले इन तीन प्राचार्यों में वस्तुतः दो प्रार्य सिंह आर्य सुहस्ती की परम्परा के हैं, जबकि तीसरे ग्रायं ब्रह्मद्वीपिकसिंह रेवती नक्षत्र के शिप्य और प्रार्य महागिरि की १ The Gapla Empire', Radhakumud Moukerji, p. 12. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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