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________________ ६. अणुतरोववाइयदसा] केवलिकाल : मार्य सुधर्मा १५५ संख्यात वेढा छन्द, संख्यात श्लोक, संख्यात निरुक्तियां, संख्यात संग्रहरिणयां, संख्यात प्रतिपत्तियां, संख्यात हजार पद और संख्यात अक्षर हैं। वर्तमान में यह सूत्र १६२ श्लोकपरिमारण का है। ____ इस अंग में ऐसे महापुरुषों का चरित्र दिया गया है जिन्होंने घोर तपश्चरण पौर विशुद्ध संयम की साधना के पश्चात् मरण प्राप्त कर अनुतरविमानों में देवत्व प्राप्त किया और वहां से च्यवन कर मनुष्य भव में संयमधर्म को सम्यग् अाराधना कर मुक्ति प्राप्त करेंगे। अनुत्तरोपपातिक दशा के तीन वर्गों में क्रमशः १०, १३ प्रौर १० इस प्रकार कुल मिला कर ३३ अध्ययनों में ३३ चरित्रात्माओं का संक्षिप्त वर्णन है। उन ३३ महापुरुषों में से प्रथम जालीकुमार प्रादि २३ तो मगधसम्राट श्रेणिक के पुत्र थे। उन २३ राजकुमारों में से कतिपय राजकुमारों की माता धारिणी, कुछ की चेलना तथा कतिपय की नन्दा थीं। तीसरे वर्ग के धन्य प्रादि १० चरित्रात्मा काकन्दी नगरी की सार्थवाहपली भद्रा के पुत्र थे। इसमें धन्ना के यहां करोड़ों की सम्पदा और ३२ पत्नियां होने का उल्लेख है। इसमें बताया गया है कि भगवान् महावीर का धर्मोपदेश सुन कर धशा को वैराग्य उत्पन्न हुआ। प्रभु चरणों में दीक्षित होने के पश्चात् धना अरणगार ने जीवन भर के लिए छह-छ? तप से पारणा करने की प्रतिज्ञा की। बेले के पारणे में भी प्रायम्बिल (प्राचाम्ल) का रूदा भोजन जो गहस्थ के यहां बाहर फेंकने योग्य होता उसे धन्ना मुनि ग्रहण करते। घोर तपश्चरण के कारण उनका रक्त एवं मांस सूख गया और उनका शरीर केवल मस्थिपंजर सा प्रतीत होता था। एक बार मगधाधिपति श्रेणिक द्वारा यह पूछने पर कि १४,००० साधुमों में से कौनसा मूनि दुष्करकारक है, भगवान महावीर ने धन्ना मुनि को ही अपने समस्त श्रमणोत्तमों में सर्वोत्तम श्रमण बताया। धन्ना प्रणगार ने ६ मास की स्वल्पकालीन साधना से ही मायु पूर्ण की। तपस्या से मुनि धन्ना का शरीर इतना क्षीण हो गया था कि उसमें रक्त-मांस का कहीं पता तक नहीं लगता था। वे अपने चविनद्ध अस्थिमात्रावशिष्ट शरीर को ही मनोबल से चलाते रहे। अन्त में संलेखनापूर्वक एक मास के अनशन से वे सर्वार्थसिद्ध विमान में देव रूप से उत्पन्न हुए। ___ स्थानांग, राजवार्तिक और प्रगपण्णत्ती प्रादि में इसके १० अध्ययनों के नाम दिये गए हैं, उनमें से कुछ वर्तमान में उपलब्ध अनुत्तरोपपातिकदशा में मिलते हैं। ............", उजुदासो सालिभद्दक्यो । सुरणवखतो प्रभयो वि य धण्णो वरवारिसेणणंदरगया। णंदो चिलायपुत्तो कत्तइयो जह · तह अण्णे ।। ५५ ॥ [मंग पम्पती] For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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